Book Title: Padma Puranabhasha
Author(s): Daulatram Kasliwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 545
________________ ५३६ पद्म-पुराण धरे हार कुण्डल पहिरे अनेक आभूषणोंकर शोभित सकलभूषण केवली के दर्शनको आये पवन से चंचल है अजा जिनकी अप्सराओंके समूह सहित अयोध्या की ओर आए। महेंद्रोदय उद्यान में केवली विराजे हैं तिनके चरणारविंद में है मन जिनका पृथिवीकी शोभा देखते श्राकाशसे नीचे उतरे र सीता front as auratग रहा था सो देखकर एक मेघकेतु नामा देव इन्द्रसे कहता भया— हे देवेंद्र ! हे नाथ ! सीता महा सतीको उपसर्ग याय प्राप्त भया हैं यह महाश्राविका पतिव्रता शीलवंती अति निर्मलचित्त है इसे ऐसा उपद्रव क्यों होय ? तब इन्द्रने आज्ञा करी, हे मेघकेतु ! मैं सकलभूषण केवली के दर्शनको जाऊ हूं और तू महामतीका उपसर्ग दूर करियो । या भांति श्राज्ञाकर इन्द्र तो महेंद्रोदय नामा उद्यानम वलीके दर्शनको गया मेघतु सीता अग्निकुण्डके ऊपर आया श्राकाशमें विमानमें तिष्ठा । कैसा है विमान ? सुमेरुके समान है शोभा जिसकी, वह देव आकाशमें सूर्य सारिखा देदीप्यमान श्रीराम ओर देखे राम महामुन्दर सब जीवों के मनको हरे हैं। इतिश्रीरविषेणाचार्यविरचित महा पद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषावचनिकाविषै सकलभूषण केवीके दर्शनकू देवनिका आगमन वर्णन करनेवाला एकसौचारवां पर्व पूर्ण भया ।। १०४ ।। अथानन्तर श्रीराम उस अग्निवापिकाको निरख कर व्याकुल मन मया विचार है अब इस कांता को कहां देखूंगा यह गुपनिकी खान महा लावण्यताकर युक्त कांतिकी धरणहारी शील रूप वस्त्रकर मंडित मालती माला समान सुगंध सुकमार शरीर अग्नि के स्पर्शही से भस्म होय जायगी जो यह राजा जनकके घर न उपजती तो भला था यह लोकापवाद अर अग्नि में मरण तो न होता इन बिना मुझे मात्र भी सुख नाहीं इस सहित वनमें बास भला घर या विना स्वर्गका बास भी भला नाहीं यह महा शीलवंती परम श्राविका है इसे मरण का भय नाही इह लोक परलोक मरण वेदना अकस्मात् न चोर यह सप्त भय तिनकर रहित सम्यक दर्शन इसके दृढ है यह अग्निमें प्रवेश करेगी घर मैं रोकू ́ तो लोगों में लज्जा उपजे पर यह लोक सब मुझे कह रहे--यह महा सती है याहि अग्निकुण्ड में प्रवेश करावो सो मैं न मानी अर सिद्धार्थ हाथ ऊंचे कर कर पुकारा मैं न मानी सो बह भी चुप होय रहा अब कौन मिसकर इसे अग्नि कुड में प्रवेश न कराऊ अथवा जिसके जिस भांति मरण उदय होय हैं उसी भांति होय हैं टारा टरे नाहीं तथापि इसका वियोग मुझसे सहा न जाय या भांति राम चिंता करे हैं अर वापी में अग्नि प्रज्वलित भई समस्त नर नारियों के आसूबों के प्रवाह चले धूम कर अन्धकार होय गया मानो मेघमाला आकाश में फैल गई आकाश भ्रमर समान श्याम होय गया अथवा कोयल स्वरूप होय गया अग्नि धूमकर सूर्य आच्छादित हुवा मानों सीताका उपसर्ग देख न सका सो दयाकर छिपया ऐसी अग्नि प्रज्वली जिसकी दूर तक ज्वाला विस्तरी मानो अनेक सूर्य उगे अथवा आकाश में प्रलयकालकी सांझ फूली, जानिए दशों दिशा स्वर्णमयी होय गई हैं मानों जगत विजुरीमय होय गया अथवा सुमेरुके जीतवेको दूजा और प्रकटा तब सीता उठी अत्यन्त निश्चलचित्त कायोत्सर्ग कर अपने हृदय में श्रीपभादि तीर्थंकरदेव विराजे हैं तिनकी स्तुति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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