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पद्म-पुराण उसको परणकर रावण लंकाको श्रावते थे सो कैलाश पर्वत ऊपर आय नि से जिन मन्दिरोंके अर बाली मुनिके प्रभारसे पष्पक विमान मनके वेग समान चंचल है जैसे सुमेरुके तट को पायकार वायु मंडल थंभे तैसे विमान थंधा । तर घंटादिका शब्दरहित भया मानों विलखा होय मौनको प्राप्त भया तब रावण विमानको अटका देख मारीच मंत्रीसे पूछते भये कि यह विमान कौन कारणसे अटका तत्र मारीच सर्व वृत्तांतमें प्रवीण कहता भया। हे देव ! सुनो यह कैलाश पर्वत है यहां कोई मुनि कायोत्सर्ग करि तिष्ठै है गिलाके ऊपर रखके थंभ समान सूर्यके सरमुख ग्रीष्ममें अातापन योग धर तिष्ठै है अपनी कांतिसे सूर्य की कांतिको जीतता हुआ विराजै है यह महामुनि धीरवीर है। महाघोरवीर तपको धरै है शीघ्र ही मुक्तिको प्राप्त हुआ चाहै है इसलिये उतरकर दर्शन करि आगे चलो या विमान पछे फेर कैलाशको छोड़कर और मार्ग होय चलो जो कदाचित् हठार कै नाशके ऊपर होय चलोगे तो विमान खंड खण्ड हो जायगा यह मारीचकं वचन सुल्य र राजा यमका जीतनेहारा रावण अपने पराक्रमसे गर्वित होकर कैलाश पर्वतको देखता भया पर्वत भानों व्याकरण ही है क्योंकि नाना प्रकारके धातुओं से भरा है अर सहस्रों गुणोंसे युक्त नाना प्रकार के सुर्वणकी रचनासे रमणीक पद पंक्तियुक्त नाना प्रकारके स्वरों कर पूर्ण है । ऊचे तीखे शिखरोंके समूहकर शोभायमान है ग्राकाशसे लगा है निसरते उछलते जे जलक. नीझरने निकर प्रकट हंस ही है कमल आदि अनेक पुष्पोंकी सुगन्ध सोई भई सुरा साकरि मत्त जे भ्रमर तिनकी गुजार से अति सुन्दर है नाना प्रकार के वृक्षोंकर भरया है, बड़े बड़े शालके जे वृज तिन ..र मंडि. जहां छहों ऋतुओंके फल फूल शोभे हैं, अनेक जातिके जीव विचरै हैं, जहां ऐसी ऐगी औषय है जिनके त्रास सोंके समूह दूर रहे हैं। मनोहर सुगंधसे मानों वह पर्वत सदा नव यौ नहीको धरै है अर मानों वह पर्वत पूर्व पुरुष समान ही है। विस्तीण जे शिला वे ही हैं हृदय जिसका अर शाल वृक्ष वे ही महा भुता पर गंभीर गुफा सो ही बदन अर वह पर्वत शरद ऋतुके मेघ समान निर्मल तटसे सुन्दर मानों दुग्ध समान अपनी कांतिसे दशों दिशाको स्नान ही करावै है । कहीं इक गुफावोंमें सूते जे सिंह तिनकर भयानक है. कहीं इक सूत जे अजगर तिनके स्वासरूपी पवनस हालै हैं वृक्ष जहां, कहीं इक भ्रमते क्रीड़ा करते जे हिरणों के समू: तिाकर शोभै हैं, कहीं इक मते हाथियों के समूहसे मंडित है वन जहां, कहीं इक कमलों के समूहसे मानो रोमांच होय रहा है अर कहीं इक वनकी सघनता से भयानक है, कहीं इक कमलोंके बन शोभित हैं सरोवर जहाँ, कहीं बानरोंके समूह वृक्षोंकी शाखोंपर केलि कर रहे हैं अर कहीं गैडान के पगकर छेदे गए हैं जे चंदनादि सुगन्ध वृक्ष तिनकर सगन्ध होय रहा है, कहीं बिजली के उद्योतसे मिला जो मेघ एडल उस समान शोभाको धरै है, कही दिवाकर समान जे ज्योतिरूप शिखर तिनकर उद्योगरूप किया है आकाश जिमन ऐसा कैलाश पर्वत देख रावण विमानसे उतरा। तहां ध्यानरूपी समुद्रविष मग्न अपने शरारक जसे प्रकाश किया है दशो दिशामें जिनने, ऐसे बाली महामुनि देखे । दिग्गज की मुण्ड समान दोऊ मजा लम्बाए कायोत्सर्ग धर खडे, लिपटि रहै हैं शरीरसे सर्प जिनके, मानो चन्दनके वृक्ष ही
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