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नौवा पर्व
१०३ श्रेयांस वासुपूज्यके ताई बारम्बार नमस्कार हो । पाया है आत्मप्रकाश जिन्होंने विमल अनन्त धर्म शांतिकताई नमस्कार हो, निरंतर सुरूके मूल सबको शांतिके करता कुन्थु जिनेन्द्र के ताई नमस्कार हो, अर नाथके ताई नमस्कार हो, मल्लि महेश्वरके ताई नमस्कार हो, मुनिसुव्रतनाथ के तई जो महाव्रतोंक देनेहारं पर अब जो होवेंगे नमि नेम पार्श्व वर्तमान तिनके कई नमस्कार हो, अर जो पद्म-भादिक अनागत होवेंगे तिनको मस्कार हो, अर जे निर्वाणादिक अतीत जिन भए तिनको नमस्कार हो । सदा सर्वदा साधुओं को नमस्कार हो, अर सर्व सिद्धोंको निरंतर नमस्कार हो । कैसे हैं सिद्ध ? केवलज्ञानरूप केवल दर्शनरूप धायक सम्यक्त्वरूप इत्यादि अनन्त गुणरूप हैं।" यह पवित्र अक्षर लंकाके स्वामी ने गाए।
रवरुद्वारा जिनेन्द्रदेवकी महास्तुति करनेसे धरणेन्द्रका प्रा. न कम्पायमान भया। तब अवधिज्ञानसे रावणका वृत्तान्त जान हर्ष फूले हैं नेत्र जिनके, सुन्दर है मुख जिनका, देदीप्यमान मणियोंके उपर जे मणि उनकी कालिसे दूर किया है अन्धवार का समूह जिनने, पातालसे शीघ्र ही नागोंके राजा कैलाश पर आए । जिन्द्रको नमस्कारवर विधिपूर्वक समस्त मनोज्ञद्रव्योंसे भगवानकी पूजा कर रावणसे कहते झए–'हे भव्य ! तैंने भगवानकी स्तुति बहुत करी र जिन भक्ति के बहुत सुन्दर गीत गाए । सो हमको बहुत हर्ष उपजा, दर्षकरके हमारा हर आनन्दरूप भया । हे रक्षसेश्वर धन्य है तू जो जिनराजकी स्तुति करे है। तेरे भावकरि बार हमारा छा गमन भया है । मैं तेरेसे संतुष्ट झया तू वर मग । जो मन वांछित वस्तु तू मांगे सो दं। तब राण कहते भए-'हे नागराज ! जिन बं नातुल्य पर कहा शुभ वस्तु है, सो मैं आपसे मांगू। आप सर्व बात समर्थ मननांछित देनेलापक हैं ।' तब नागपति बोले'हे गवण ! जिनेंद्रकी बंदनाके तुल्य अर कल्याण नहीं । यह जिन भक्ति शाराधी हुई मुक्तिके सुख देव है त. या तुल्य अर कोई पदार्थ न हुआ न होयगा ।' तब रावण ने कही-'हे महामते ! जो इससे अधिक अर बस्तु नहीं तो मैं कहा याचू' तब नागपति बोले-तैने जो कहा सो सब सत्य है जिनभक्ति से सब कुछ सिद्धि होय है याको कुछ दुर्लभ नहीं तुम सारिखे मुझ सारिखे अर इंद्र सारिखे अनेक पद सर्व जिनभक्तिसे ही होय हैं अर यह तो संसार के सख अल्प हैं विनाशीक हैं इनकी क्या बात ? मोक्षके अविनाशी जो यतेन्द्री मुख वे भी जिनभक्ति करि प्राप्त होय हैं । हे राण ! तुम यद्यपि अत्यन्त त्यागी हो महानियवान वलवान हो महा ऐवयवान हो गुणकर शोभित हो तथापि मेरा दर्शन तुमको वृथा मत होय, मैं तेरेसे प्रार्थना करू हूँ तू कुछ मांग । यह मैं जानू हूँ कि तू याचक नहीं परंतु मैं अमोघ विजयानामा शक्ति विद्या तुझे दुहूं सो हे लंकेश ! तू ले, हमारा स्नेह खण्डन मतकर । हे रावण, किसीकी दशा एकसी कभी नहीं रहती, विपत्तिके अनंतर सम्पत्ति होती है, जो कदाचित् मनुष्य शरीर है अर तुझपर विपत्ति पड़े तो यह शक्ति तेरे शत्रुकी नाश्.नेहारी अर तरी रक्षाकी वरनहारी होयगी। मनुष्योंकी क्या बात इससे देव भी डरें हैं यह शक्ति अग्नि ज्वालाकर मण्डित विस्तीर्ण शक्तिकी धारनेहारी है। तब रावए धरणेन्द्रकी आज्ञा लोपनेकों असमर्थ होता हुया शक्तिको ग्रहण
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