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पत्र-पुराण
बुद्धिमान दूत किहकंवपुरमें जायर बालीसे कहता भया-'हे बानराधीश ! दशमुखने तुमकू आज्ञा करी है सो सुनो। कैगे है दशमुख ? महाबली महा तेजस्वी महालक्ष्मीवान मा नीतिवान महा सेनायुक्त प्रचण्डनको दण्ड देने ारा महा उदयवान है जिन समान भरतक्षेत्र में दूजा नहीं, पृथ्वीके देव अर शत्रुवोंका मान मर्दन करनेहारा है यह अाज्ञा करी है जो तुम्हारे पिता सूर्यरजको मैंने राजा यम वैरीको काढ़कर किहकंधपुर थापा अर तुम सदाके हमारे मित्र हो परन्तु श्राप अब उपकार भूलकर हमसो पर उ भुख हो गये हो, यह योग्य नहीं है, मैं तुम्हारे पितासे भी अधिक प्रीति तुमसे करूंगा, अतुम शीघ्र ही हमारे निकट श्रावो, प्रणाम करो पर अपनी श्रीप्रभा हमको परणावो, हमारे संबंधले रुमको सर्व सुख होयगा। दूनने कही-यह रावणको श्राज्ञा प्रमाण करो। सो बालीके मनमें और बात तो आई परन्तु एक प्रणाम की न आई, फाहेरौं ? जो याकै देव गुरु शास्त्र बिना औरको नमस्कार नहीं करें यह प्रतिज्ञा है । तब दूतने फिर कही हे कपिध्वज ! अधिक कहनसे कहा ? मेरे वचन तुम निश्चय करो हालक्ष्मी पाकर गर्व मत करो, या तो दोनों हाथ जड़ सणाम करो या आयुध पकड़ो। या तो सेक्क होयकर स्वामीपर चंर ढोरो या भागकर दशों दिशामें विचरो या सिर नपायो या बैंनिक वनुष निवावों या रावणकी प्राज्ञ को कर्णका आभूपण करो या धनुषका पिणच बँचकर कानोंतक लावो, या तो मेरे चरणारविंदकी रज माथे चढ़ायो या रण संग्राम सिरपर टोप धरो, या तो बाण छोड़ो या धरती छोड़ो, या तो हाथ में वेत्र दर ड लेकर सेवा करो या बरछी हाथमें पकड़ो, या तो अंजली जोड़ो या सेना जोड़ो । या तो मर चरणोंके नखमें मुख देखो या खडगप दर्पणमें मुख देखो। ये कठोर वचन गरणके दूने लोसे कहे । तब बालीका गाघ्रविलंबी नामा सुभट कहता भया-रे कुदूत ; नाच पुस, तू ऐसे अश्विकके वचन कहै है सो तू खोटे ग्रहकर ग्रहा है समस्त पृथ्वीपर प्रसिद्ध है पराक्रम कर गुण जिसका, ऐसा बाली देव तूने अतक कर्णगोचर नहीं किया। ऐसा कहकर सुभटने महा क्रोधायमान होकर दूाके मारणेकू खडाार हाथ धरा तब बालीने मने किया जो इस रंकक मार से कहा ? यह तो अपने नाथके कहे प्रमाण वचन बोले है अर रावण ऐसे पचन कहावै है सो उसी की आयु अल्प है तब दूत डकर शिताव रावणपै गया रावणको सकल वृतांत कहा रावण महाक्रोधको प्राप्त भया दुस्सह तेजवान रावणने बड़ी सेनाकर मण्डिा वखतर पहन शोघ्र ही कूच किया । रावणका शरीर तेजोमय परमाणुवोंसे रचा गया है रावण किहकंधपुर पहुंचे। बालीने परदलका महा भयानक शब्द सुनकर युद्धके अर्थ बाहिर निकसनका उद्यम किया तब महा बुद्धिमान नीतिवान जे सागर वृद्धादिक मंत्री उन्होंने वचनरूपी जलसे शांत किया कि हे देव ; निमारण युद्ध करनेसे कहा ? क्षमा करो शागे अनेक योथा मान करके क्षय भए, र ा था प्रिय जिनो । प्रष्ट चन्द्र विद्यापर अर्ककीर्तिके भुजके आधार जिनके देव सहाई तो भी मेघेश्वर जयकुमार के बाहर क्षय भए रावसाकी बड़ी सेना है जिसकी अंर कोई देख सकै नहीं, खड्ग गदा संल बाण इत्यादि अनेक प्रायोंकर भरी है अतुल्य है । तातें आप संदेहकी तुला जो संग्राम उसके अर्थ न चढ़ो । तब
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