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पत्र-पुराण विद्या तीनों भाईयों को सिद्ध भई सो मनवांछित अन्न इनको विद्या पहुँचावे तुधानी बाधा इनको न होती भई । बहुरि यह स्थिरचित्त होय सहस्रकोट पोडशातरमन्त्र जपते भए ! उस समय जम्बूद्वीपका अधिपति अनावृत नामा यक्ष, स्त्रियों सहित क्रीड़: करता आय प्राप्त हुषा। सो उसकी देवांगना इन तीनों भाइयोंको महा रूपवान अर नव यौवन तपमें सावधान देख कौतुक कर इनके समीप आई, कमल समान है मुख जिनके, भ्रमर समान हैं श्याम सुन्दर केश जिनके कैएक आपसमें बोलीं-"अहो ! यह राजकुमार अतेकोमल शरीर कांतिवारी बस्त्राभरणसहित कौन अर्थ जप करें हैं ? इनके शरीरकी कांति भोगों बिना न सोहे, कहां इनकी नवयौवन वय अर कहां यह भयानक बनमें तप करना ।" वहुरि इनके तपके डिगावनेके अर्थ कहती भई-"अहो अल्पबुद्धि ! तुम्हारा सुन्दर रूपवान शरीर भोगका साधन है, योगका साधन नहीं, तात काहेको तपका खेद करा हो, उठो घर चलो, अब भी कुछ नहीं गया" इत्यादि अनेक बचन कहे परन्तु इनके मनों एकहू न आई। जैसे जलकी बूंद कमलके पत्रपर न ठहरे । तब वे आपसमें कहती भई- हे सखा ! ये काष्ठमई हैं सर्व अंग इनके निश्चल दीखे हैं ऐसा कहकर क्रोधायमान होय तत्काल समीर अई। इनके विस्तीर्ण हृदयपर कुंडल मारा तो भी ये चलायमान न भये । स्थिरीभूत है चित्त जिनका, कार पुरुष होय सोई प्रतिज्ञासे डिगे, देविनि के कहै तै अनावृत यक्षने हंसकर कहा-भी सत्पुरुषों काहे को दुर्धर तप करो हो पर किस देवको आराधो हो ऐसा कहा तो भी ये नहीं बोले । चित्रामले होय रहे तर अनावृतने क्रोध किया कि जम्बूद्वीपका देव तो मैं हूं मुकको छोड़कर किसको ध्यावें हैं : ये मन्दबुद्धि हैं उनको उपद्रव करणे के अर्थ अपने किरोंका आज्ञा करो। किंकर स्वभावहीते का हुने अर स्वाभीके कहेसे उन्होंने और भी अधिक अनेक उपद्रव किए कैरक तो पर्वत उठाच ठाव लाए और इनके समीप पटके तिनके भयंकर शब्द भये, कैएक सर्प होय सर्व शरीरसे लिपट गए, कैएक नाहर होय मुख फाड़कर आये अर कैएक शब्द कानमें ऐसे करते भये जिनको सुनकर लोक बहिरे होय जाय, तथा मायामई डांसे बहुत किये सो इनके शरीरमें आय लागे अर मायामई हस्ती दिखाये, असराल पवन चलाई, माया ई दावानल लगाई, इस भांति अनेक उपद्रव किये, तो भी यह ध्यानसे न डिगे निश्चल है अन्तःकरण जिनका । तब देवोंने मायामई भ.जोंकी सेना यनाई । अंधकार समान विकगल आयुवोंको धरे इनको ऐना मात्रा दिखाई कि पुपांतक नगरमें महा युद्ध में रत्नश्रयाको कुटुम्ब सहित बंधा हुआ दिखाया अर यह खिाया कि माता केकसी विलाप करे है कि हे पुत्रो ! इन चाण्डाल भीलों ने तुम्हारे पिताक साथ मह। उपद्रव किया है अर यह चांडाल मुझे मारे हैं, पायों में बढ़ा डर है नाथेक कश खींच हे, हे पुत्रो। तुम्हारे आगे मुझे यह म्लेच्छ भील पल्ली में लिये जाप हैं, तुम परत हुतना सस्त विद्याधर एकत्र होय मुझसे लडें तो भी न जीता जाऊ सो यह वार्ता तुम मिथ्या ही कहते । अब तुमारे आगे म्लेच्छ चांडाल मुझे केश पकड खींचे लिये जाय हैं, तुम तीनों ही आई इन म्लेच्छोंसे युद्ध करने समर्थ नहीं, मंद पराक्रमी हो । हे दराभाव ! तरा स्वात्र विभाषण वृथा ही करे था,
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