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हर व्यक्ति के अंतर-हृदय में जनक का जन्म हो। केवल अष्टावक्र ही पैदा हो जाए, जनक साकार न हो, तो अष्टावक्र का ज्ञान उन्हीं तक सीमित रह जाता है। अगर जनक न जन्मे, तो 'अष्टावक्र-गीता' जन्म ही नहीं लेगी। हजारों-हजार अष्टावक्र पैदा क्यों न हो जाएं, उनके ज्ञान की संसार के लिए कोई सार्थकता नहीं है। उनका ज्ञान उनके साथ ही चला जाएगा। कहा जाता है कि कबीर अपने हाथ में जलती हुई कंदील लेकर बाजार में शिष्य की खोज में घूमा करते थे। अंधेरी रात में नहीं, दिन के उजाले में लालटेन लेकर शिष्य की खोज! अब भला कबीर जैसे महामनीषी का शिष्य कौन नहीं बनना चाहेगा! तुम तो उन्हें गुरु के रूप में पूजने को उद्यत हो, मगर वे तुम्हारा शिष्यत्व स्वीकारने को तैयार नहीं।
शिष्य वह होता है, जिसमें सीखने की सुपात्रता घटित हो गई है। जनेऊ धारण करने भर से कोई शिष्य नहीं हो जाता; पगड़ी बांध लेने भर से कोई सिक्ख नहीं हो जाता। जिसमें शिष्यत्व घटित हो जाता है, जिसमें सीखने की असीम उत्कंठा जाग्रत हो गई है, वही सिक्ख है, वही शिष्य है। जनक इस कसौटी पर खरे उतरे। नतीजतन जनक आत्मज्ञान के 'जनक' सिद्ध हुए। जनक राजा और परम विद्वान हैं, यह विचार करके अष्टावक्र ने उन्हें अपना शिष्य नहीं बनाया, वरन् जनक में पात्रता की पूर्णता देख कर संतुष्ट होने के उपरांत ही अपना शिष्य स्वीकार किया; आत्मज्ञान का आलोक प्रदान करने के लिए तैयार हुए।
एक विचित्र घटना का उदघाटन ही अष्टावक्र के गरुत्व और जनक के शिष्यत्व का उत्पत्ति-केंद्र बना। अष्टावक्र कहोड़ ऋषि के पुत्र थे। उन्हें मालूम हुआ कि राजा जनक की राजसभा में तत्त्वज्ञान और आत्मज्ञान के बारे में कई दिनों से शास्त्रार्थ चल रहा था। महीनों बीत गए, मगर शास्त्रार्थ किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पा रहा था। यही देखने अष्टावक्र राजा जनक की सभा की ओर चल पड़े।
अप्टावक्र राजसभा में पहुंचे। उनके आगमन ने सबका ध्यान खींचा। अष्टावक्र-नाम से ही जाहिर है कि उनके आठ अंग मुड़े हुए थे, टेढ़े-मेढ़े थे। अगर आदमी एक पांव से पंगु हो, तो भी ध्यान उसकी ओर चला जाता है, जबकि अष्टावक्र तो आठ अंगों से विकलांग थे। सभी का ध्यान उनकी ओर जाना स्वाभाविक था। अष्टावक्र को देखकर विद्वान, दरबारी, राजा-सभी हंस पड़े। उनको हंसता देखकर अष्टावक्र भी जोरों से खिलखिला उठे । राजा जनक विस्मयपूर्वक अष्टावक्र को देखने लगे। जनक ने अष्टावक्र से पूछा-संत अष्टावक्र, मेरे मन में एक प्रश्न है। यहां सभा में उपस्थित हर व्यक्ति तुम्हारी देह-रचना पर हंसा, मगर तुम्हें किस बात पर हंसी आई ? मैं यह जानने के लिए बेचैन हूं। अष्टावक्र गंभीर हो गए। उन्होंने कहा-मैं तो यह सोचकर आया था कि मैं महाज्ञानी राजा जनक की राजसभा में हो रहे शास्त्रार्थ में जा रहा हूं, लेकिन यहां आकर तो लगा कि यह तो चर्मकारों की सभा है।
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