Book Title: Na Janma Na Mrutyu
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 10
________________ साक्षित्व का सूर्योदय शाज से हम सभी एक अनूठी तीर्थ यात्रा के लिए अपने कदम बढ़ा रहे हैं। जा यह एक ऐसी यात्रा है, जिसे किए बिना आदमी सदैव ही अपूर्ण है। यह तीर्थ-यात्रा धरती का कोई स्थापित पवित्र स्थल नहीं है, वरन् धरती के हर डगर पर जलता हुआ चिराग है और वह चिराग व्यक्ति स्वयं है। स्वयं की रोशनी में जीना, स्वयं के तीर्थ की यात्रा करना, जीने और तीर्थाटन करने का श्रेष्ठ उपक्रम है। स्वयं की तीर्थ-यात्रा करके हम बाजार में भी जाएंगे, तो बाजार भी परमात्मा का मंदिर हो जाएगा। आत्मवंचित होकर अगर मंदिर भी गए, तो मंदिर जाना भी बाजार में भटकना होगा। इस अनूठी तीर्थ-यात्रा के लिए हमें कहीं जाना नहीं होता, वरन् जहां हम हैं, केवल वहीं स्थितप्रज्ञ होना होता है। दृष्टि को अंतर-वैभव की ओर ले जाना होता है। हमें दुनिया भर के हजारों-हजार तीर्थ याद हो आए हों, मगर स्वयं का तीर्थ ही अनजाना-अपरिचित रहा। हमने चंद्रलोक की यात्राओं के लिए लंबी-चौड़ी कल्पनाएं की हैं, पर अपना अंतरलोक तो अछूता रहा। आज से हम ऐसे तीर्थ की ओर कदम बढ़ाएं, जो स्वयं में समाहित महालोक है। हमें पहले अपने आपको उन शिखरों से नीचे उतारना होगा, जिन पर हम जन्मों-जन्मों से बैठे रहे हैं। हर आदमी किसी-न-किसी शिखर पर बैठा है। कोई अहंकार के मदमाते हाथी पर बैठा है, तो कोई माया और प्रपंच के टीले पर; कोई क्रोध और उत्तेजना की टेकरी पर बैठा है, तो कोई विषय-वासना के पर्वत पर। हमारी यात्रा किसी शिखर की यात्रा नहीं है, वरन् शिखरों से नीचे उतरने की पहल है, अहं के मदमाते हाथी से नीचे उतरने की। यहां पहले उतरना है, फिर मान-सरोवर में स्वयं को निमज्जित करना है। यह मानसरोवर स्वयं के अंतर्मन का है, स्वयं की अंतरात्मा का है। इस तीर्थ यात्रा में तीर्थ भी हम ही हैं और तीर्थकर भी हम ही। ऐसी तीर्थ-यात्राएं धरती पर तब-तब घटित होती रहेंगी, जब-जब धरती पर अष्टावक्र जैसे महर्षि और जनक जैसे सुपात्र साकार होते रहेंगे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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