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महामन्त्र णमोकार : एक वैज्ञानिक अन्वेषण
आधार पर केवल चौरासी आसन ही मान्य एवं प्रचलित हैं । आङ् उपसर्ग पूर्वक सन् धातु से संज्ञारूप आसन शब्द निष्पन्न होता है । आङ् का अर्थ है-मर्यादा पूर्वक तथा पूर्णतया और सन् का अर्थ है-बैठना या ठहरना । स्पष्ट है कि आसन से शरीर का ही नहीं मन का भी परिष्कार होता है । मन्त्र-पाठ में भी आसन का अपना विशिष्ट महत्त्व
योगी अथवा गृहस्थ को चाहिए कि वह ध्यान के लिए उचित स्थान एवं उचित आसन को चुने । सिद्धक्षेत्र, जलाशय (नदी तट, समुद्र तट) पर्वत, अरण्य, गुफा, चैत्यालय अथवा एकान्त, शान्त, पवित्र स्थान आसन के लिए उपयोगी हैं। आसन चौकी पर, चट्टान पर, बालुका पर या स्वच्छ भूमि पर लगाना चाहिए। पदमासन, पर्यकासन, वज्रासन, सुखासन, कायोत्सर्ग एवं कमलासन ध्यान के लिए उपयोगी आसन हैं। साधक अपनी शारीरिक शक्ति के अनुरूप आसन लगा सकता है । बिछावन को अर्थात् चटाई आदि को भी आसन कहा गया है। सूत, कुश, तण एवं ऊन का आसन हो सकता है। ऊन का आसन श्रेष्ठ माना जाता है। शरीर यन्त्र को साधना के अनुरूप बनाना ही आसन का उद्देश्य है। शरीर की पूरी क्षमता श्रेष्ठ योग साधना के लिए परमावश्यक है। योगासन और शारीरिक व्यायाम में अन्तर है। शारीरिक व्यायाम केवल शरीर की पुष्टता तक ही सीमित है। परन्तु योगासन में शारीरिक स्वास्थ्य, मन और वाणी की निर्मलता का साधन मात्र है।
सामान्यतया आसनों के तीन प्रकार हैं-१. ऊर्वासन-खड़े होकर किया जाता है। २. निषोदन आसन-बैठकर किया जाता है। ३. शयन आसन-लेटकर किया जाता है। इन आसनों के कुछ प्रकार ये भी हैं-ऊर्वासन-सम्पाद, एकपाद, कायोत्सर्ग निषोदन-पद्मासन, वीरासन, सुखासन, सिद्धासन, भद्रासन। शयन आसन-दण्डासन, धनुरासन, शवासन, मत्स्यासन, गर्भासन, भुजंगासन ।
शुभचन्द्राचार्य कृत ज्ञानार्णव में पद्मासन और कायोत्सर्ग ये दो ही आसन ध्यान करने के लिए श्रेष्ठ बताए गये हैं।