________________
प्रश्न ८८. सांसारिक भोगों की इच्छा लेकर महामन्त्र का पाठ या
जाप करना कहाँ तक उचित है?
उत्तर:
मूलत: यह महामन्त्र गुणात्मक एवं आध्यात्मिक है । सभी आराध्य भी वीतरागी हैं । अतः लौकिक कामना के साथ उपासना करना उचित नहीं है । लौकिक राग युक्त भक्ति में कषायों की रागात्मक तीव्रता होगी और उससे पापबन्ध ही होता है, पुण्य बन्ध नहीं । वीतरागी सर्वज्ञ हमारा भला बुरा कुछ भी नहीं करते । बस हम उनके गुणों से प्रेरित होकर स्वयं में एक गहरी जागृति का शंखनाद अनुभव करते हैं।
साथ ही यह भी एक अकाट्य सचाई है कि मानव घोर शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक तथा आर्थिक कष्टों में रहकर (रहते हुए) इन सबको भूलकर कैसे भक्ति (आत्मोद्धारपरक) करेगा। बस इसका समाधान यही है कि भगवान के गुणों से प्रेरित होकर भक्त अपने मनोबल को इतना अपराजेय बनाले कि उसे पीड़ा और पराभव का अनुभव न हो । ऐसी मानसिकता का निर्माण करना भक्त की बहुत बड़ी उपलब्धि है । पीड़ा प्राय: मानसिक होती है और मनोनयन से धुल जाती है । इस प्रकार परोक्ष रूप से या प्रकारान्तर से भक्त की लौकिक पीड़ा का शमन हो जाता है । विश्व के अन्य धर्म किसी न किसी प्रकार भगवान का प्रत्यक्ष सक्रिय साहाय्य भक्तों की रक्षार्थ स्वीकार करते हैं । यह एक प्रत्यक्ष एवं विश्वसनीय व्यावहारिक प्रयोग है। सहसा इसको तर्क बल से झुठलामा कहाँ तक कार्य कर होगा? अतः भक्तों के लौकिक कष्टों का निवारण चाहे परोक्ष प्रेरणा से हो । चाहे भगवान के अंगरक्षक देवों द्वारा हो और चाहे स्वयं भगवान के अवतार द्वारा हो, होना ही चाहिए, यह किसी धर्म की साख के लिए अत्यन्त महत्व पूर्ण
22173