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निष्कर्ष रूप में यह ज्ञातव्य है कि हमें प्राकृतिक चिकित्सा में जिस तत्त्व की आवश्यकता हो उसकी प्राप्ति महामंत्र के जाप से की जा सकती है। महामंत्र के पाँचों पदों में अरिहंत परमेष्ठी का प्रथम पद सर्वाधिक शक्तिशाली है। इसमें आकाश, वायु और अग्नि तत्त्व हैं
और ये तत्त्व द्रुतगामी, परमशक्तिशाली, सूक्ष्म तथा आत्मा के अधिक निकट हैं। अतः केवल ‘णमो अरिहंताणं' का या फिर 'ॐ अर्हन्' का जाप किया जा सकता है।
यदि हमारा मन मंत्र के प्रतिपूर्ण आश्वस्त नहीं है तो प्राकृतिक चिकित्सा के साथ मंत्र जाप को भी लें। इससे शारीरिक स्वास्थ्य और मनोबल बनेगा। पूर्ण विश्वास और समर्पण के अभाव में पूर्ण लाभ नहीं होगा। अतः चिकित्सा और मंत्रराधना को साथ-साथ चलने दें। व्याहारिकता यह है कि यदि किसी दैवी शक्ति या आध्यात्मिक शक्ति पर विश्वास पूरा न हो तो लौकिक उपाय के साथ-साथ उसे भी अपनाते रहने से आंतरिक बल बना रहेगा। पर धीरे-धीरे जब विश्वास पुष्ट हो जाए तो फिर पूर्णतया उस पर (मंत्र या दैवी शक्ति पर) निर्भर किया जा सकता है। क्योंकि "विश्वासः फलदायकः” और “संशयात्मा विनश्यति” यह भी लोगों का अनुभूत-सत्य है। प्रसंग अनाथी मुनि का .
उत्तराध्ययन सूत्र का प्रसंग है। अनाथी मुनि चक्षु रोग से आक्रांत हो गये। अनाथी मुनि के सभी परिवार जन चिंतित हो उठे। बहुत धन खर्च किया गया फिर भी मुनि स्वस्थ न हुए। उनकी वेदना असहय ही रही। तब अनाथी मुनि ने निश्चय किया-संकल्प किया कि मुझे अपनी समस्या का स्वयं समाधान खोजना चाहिए। उन्होंने संकल्प किया यदि प्रातः काल तक मेरी आँख वेदना ठीक हो जाए तो में मुनि बन जाऊँ।
एक चमत्कार हुआ। जो पीड़ा इतनी दवाओं और प्रयत्नों से न जा सकी, वह सहसा शांत हो गयी। संकल्प फला और अनाथी जगत् के संबंधों को तोड़ मुनि बन गये" हमारे भीतर ऐसी शक्तियाँ हैं जो हमें बचा सकती है। संकल्प की शक्ति बहुत बड़ी शक्ति है।
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