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पतंजलि - प्रकर्षेण नूयते स्तूयते अनेन इति प्रणवः (ओम्)
तस्य ईशस्य वाचकः प्रणवः । प्रश्न ७४. णमोकार मन्त्र की मूल ऊर्जा कुंडलिनी जागरण में हैं
क्योंकि णं का प्रारम्भ ही कुंडलिनी जागरण से होता है। क्या आप इससे सहमत है, यदि हाँ तो कैसे? णं ध्वनि मूर्धामूलक है, आकाश तत्त्वमय है अत: वह सहज ही बीजध्वनि के रूप में मूलाधार (कुंडलिनी) में स्पन्दन पैदा कर सम्पूर्ण चक्र मण्डल में व्याप्त हो जाती है ।
उत्तर:
इस प्रकार का विचार कुछ अन्तर के साथ अनेक प्राचीन और वर्तमान आचार्यों का है । हेमचन्द्राचार्य से लेकर मुनि सुशील कुमार जी तक में इस तथ्य को परखा जा सकता है । हमारा सीमित ज्ञान अब नये खोज - क्षितिज खोज रहा है तो हमें उसे समझना चाहिए न कि परिबद्ध मस्तिष्क हो कर विरोध करना चाहिए।
कुंडलिनी (मूलाधार चक्र) - स्वरूप और गुण
मनुष्य स्थूल शरीर तक ही सीमित नहीं है । वह सूक्ष्म शरीर एवं स्वप्न शरीर आदि भेदों से आगे बढ़ता हुआ समाधि की ओर गतिशील हो जाता है । शरीर के इन सभी रूपों को पाँच शरीर भी कहा गया है - अन्नमय शरीर, प्राणमय शरीर, मनोमय शरीर, विज्ञानमय शरीर और आनन्दमय शरीर । इसी प्रकार औदारिक, वैक्रियक, तैजस, आहारक और कामणि के रूप में जैन शास्त्रों में भी शरीरों का वर्णन है । इनसे परे आत्मा है । इन शरीरों की ऊपरी सतह पर ईथर शरीर (आकाश वायु शरीर) है । ईथर के भंडार स्थान शरीर चक्र कहलाते हैं ।
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