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हृदय और पसलियों को ठीक रखता है, बुद्धि को प्रखर रखता है। साधु परमेष्ठी का श्याम रंग कर्मठता, संघर्ष और साहस देता है। रंगों के माध्यम से मंत्र में उतरना और स्वयं को निरोग बनाने का अर्थ है-आकृति और दृष्टि-मूलक प्रयोग, नेत्रेन्द्रिय परक पद्धति।
__ आयुर्वेद चिकित्सा का आधार वात, पित्त और कफ है। इनके आधार पर रंगों को इस प्रकार रखा गया है। कफ का आसमानी रंग, वांत का पीला रंग, पित्त का लाल रंग। लाल रंग की शरीर में कमी के कारण सुस्ती, अधिक निद्रा, भूख की कमी, कब्ज और पतले दस्त आते हैं। रक्त का रंग लाल है ही। आसमानी रंग की कमी से फेफड़ों में सूजन, थकान और चक्कर आते हैं। पीत रंग की कमी मस्तिष्क में शिथिलता मंदाग्नि और उदासीनता आती है। उक्त रंगों की माला लेकर पंचपरमेष्ठी का जाप करने से अवश्य ही लाभ होगा। एकासन और सात्त्विक भोजन आवश्यक है। रत्न चिकित्सा एवं किरण चिकित्सा को महामंत्र से जोड़कर लाभ लिया जा सकता है। ध्वनि और महामंत्र
ध्वनि (कर्ण), रंग (नेत्र-आकृति) और योग (शरीर और मन) के माध्यमों से महामंत्र को साधा जा सकता है, अर्थात् इन साधनों के साथ महामंत्र का जाप या मानस पाठ, लोक-परलोक की सिद्धियों का प्रदाता हो सकता है। ध्वनि का महत्त्व तो सर्वविदित है। दो बस्तुओं के आपस में टकराने या घर्षित होने से जो श्रोतव्य प्रतिक्रिया होती है, वही ध्वनि है। वैज्ञानिक दृष्टि से वायुमण्डलीय दवाब (Atmospheric Pressure) में परिवर्तन या उतार-चढ़ाव का नाम ध्वनि है। यह परिवर्तन वायुकणों के दवाब या बिखराव के कारण होता है। यह तो भाषा विज्ञान के प्रसंग में ध्वनि की परिभाषा है जो पर्याप्त सीमित है। ध्वनि की महत्ता को हमारे ऋषियों, मुनियो और योगियों ने बहुत दूरदर्शिता से समझा। फलस्वरूप शब्द ब्रह्म, स्फोटवाद और शब्द शक्ति का विकास हुआ, आविष्कार हुआ। दिव्य ध्वनि और ओंकरात्मक दिव्य ध्वनि को इसी प्रसंग में समझा जा सकता है। बैखरी, मध्या, 'पश्यन्ती और परा-भाषा के स्थूल से सूक्ष्मतम रूप है। ध्वनि का
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