________________
मन, वचन और शरीर की एकाग्रता के अभाव में भगवद् भक्ति या मंत्र, स्तोत्र पाठ लाभकारी न होगा। कल्याण मंदिर स्तोत्र (आचार्य सिद्धसेनकृत) का 38वाँ पद्य इस प्रसंग में उत्कृष्ट उदाहरण है-दृष्टव्य है-मननीय है, आचरणीय है-..
"आकर्णितो महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, नूनं न चेतसिमया विधृतोऽसि भक्त्या। जातोऽस्मि तेन जन बांधव दुःख पात्रं, यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भाव शून्याः ।। अर्थात् हे प्रभु ! आपके विषय में सुना (प्रवचनं आदि) आपकी पूजा की और आपके दर्शन भी किये। परंतु यह सब शुद्ध भक्तिभाव से नहीं किया केवल शरीर से एक नाटक किया। अतः मैं हे प्रभु जन्म जन्मांतर से दुःखों का पात्र हूँ। सच है-भाव शून्य आचरण फलदायी. नहीं हो सकता।
भगवान् के साथ भी हम छल-कपट से नहीं चूकते। अर्धशंकित या शंकित मन से जाप करने से बस आंशिक लाभ ही होगा, पूर्ण लाभ नहीं। आज की भौतिक चकाचौंध में हम अपनी आस्था काफी छोड़ चुके है।, कभी-कभी शिष्टाचार या दिखावे के लिए ही मंत्रपाठ या पूजा आदि करते हैं और चाहते है फल । मानस मंत्रोच्चार से उत्पन्न ध्वनि संपूर्ण शरीर और आसपास के वातावरण को पवित्र करती है। अनेक डॉक्टर, वैद्य एवं गुरु अपना कार्य मंत्रजाप से प्रारंभ करते हैं। वे अपने रोगी के कानों में मंत्रोच्चार करते हैं या उससे ही बुलवाते हैं और फिर इलाज चालू करते हैं। उनका यह प्रयोग बहुत सफल हुआ है। मेरे बब्बा (पिता के पिता) अस्थिरोग चिकित्सक थे। वे सदा महामंत्र पढ़कर रोगी की चिकित्सा करते थे। उन्हें भरपूर सफलता मिलती थी। माशय यह है कि मंत्र और भौतिक चिकित्सा मिलकर भी लाभकारी सिद्ध हुए हैं। कुछ डॉक्टर मंत्र उच्चरित करके तो दूसरे डाक्टर मंत्र का मानस पाठ करके चिकित्सा आरंभ करते हैं। यह निजी अनुभव की बात है।
1662