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योग और ध्यान के सन्दर्भ में णमोकार मन्त्र 1038
का प्रयोग प्रायः योग के अर्थ में किया गया है। योग के आठ अंग माने जाते हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार, धारण, ध्यान और समाधि। इन योगाङ्गों के निरन्तर अभ्यास से साधक का चित्त सुस्थिर हो जाता है। तन के नियन्त्रण और वशीकरण का मन पर सहज ही व्यापक प्रभाव पड़ता है। इसीलिए व्रत उपवास आदि भी किये जाते
यम और नियम-जैन धर्म में त्याग और निवत्ति का प्राधान्य है। अतः यम-नियम के स्वरूप को निवृत्ति के धरातल पर समझना होगा। विभाव अर्थात् ऐसे सभी भाव जो मानव की सांसारिक लिप्सा का पोषण करते हैं उनसे दूर रहकर स्वभाव अर्थात् आत्म स्वरूप में लीन होना यम-नियम का मूल स्वर है। संयम यम का ही विकसित रूप है। यम के मुख्य दो भेद हैं-प्राणि-संयम एवं इन्द्रिय-संयम। मन, वचन, काय से और कृत, कारित, अनुमोदन से किसी भी प्राणी की हिंसा न करना और यथासम्भव रक्षा करना प्राणी संयम है। अपनी पंचेन्द्रियों पर मन, वचन, काय से संयम रखना इन्द्रिय संयम है। हमें राग और द्वेष दोनों से ही बचना है। ये दोनों ही संसार के कारण हैं। नियम के अन्तर्गत व्रत, उपवास, सामयिक पूजन एवं स्तवन आदि आते हैं। इनका यथाशक्ति निष्ठापूर्वक पालन करना चाहिए। योगसाधन में हम शारीरिक और मानसिक नियन्त्रण द्वारा आत्मा के विशुद्ध स्वरूप तक पहुंचते हैं । यम, नियम के द्वारा हम इहलोक और परलोक को सही समझकर अपना जीवन सूचारु रूप से चला सकते हैं। __ आसन-'इच्छा निरोधस्तपः' अर्थात इच्छाओं को रोकना और समाप्त करना तप है । एक संकल्पवान् व्यक्ति ही अपने जीवन के सही लक्ष्य तक पहुंच सकता है। मन के नियन्त्रण और उसकी शुचिता के लिए शरीर को भी स्वस्थ एवं अनुकूल रखना होगा। यह कार्य आसन द्वारा सम्भव है। आसन का अर्थ है होने की स्थिति या बैठने की पद्धति । योगी को आसन लगाने का अभ्यास करना परमावश्यक है। योगासन हमें स्वस्थ रखने में तथा हमारे मन को पवित्र एवं जागृत रखने में अचूक शक्ति है। सामान्यतया आसनों की संख्या शताधिक है। हठयोग में तो आसनों की संख्या सहस्त्रों तक है। जीव यौनियों के समान आसनों की संख्या भी चौरासी लाख बतायी है। प्रधानता के