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महामन्त्र णमोकार अर्थ, व्याख्या (पदक्रमानुसार)
विश्व के प्रत्येक धर्म में चित्त की निर्मलता और तदनुसार आचरण विशुद्धता को स्वीकार किया गया । इसके लिए सभी धर्मों ने एक अत्यन्त संक्षिप्त, पूर्ण एवं परम प्रभावकारी साधन के रूप में मन्त्रों को अपनाया है । मन्त्रों में भी सर्वत्र एक महामन्त्र होता ही है। वैदिक परम्परा में गायत्री महामन्त्र, वौद्ध परम्परा में त्रिसरण महामन्त्र, ईसाई, मुसलमान और सिक्ख धर्म में भी इबादत और ईशनाम स्मरण को महामन्त्रों की संज्ञा दी गयी है । जैन धर्म इस परम्परा का अपवाद नहीं है, अपितु इस धर्म में तो ' णमोकार महामन्त्र' को अनाद्यनन्त माना गया है ।
मूल महामन्त्र :
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सब्बसाहूणं । ।
अरिहन्तों को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, आचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो, लोक के समस्त साधुओं को नमस्कार हो ।
मन्त्र के प्रथम पद में अरिहन्त परमेष्ठी को नमस्कार किया गया है । 'अरि' अर्थात् शत्रुओं को हन्त अर्थात् नष्ट करने वाले अरिहन्तों
नमस्कार हो । यह महामन्त्र अपनी मूल प्रकृति के अनुसार नमन और विनय गुण की आधार शिला पर स्थित है । विनय और नमन के मूल में श्रद्धा, गुणग्राहकता और अहिंसक दृष्टि के ठोस तत्त्व विद्यमान होने पर ही उसकी सार्थकता सिद्ध होती है । आशय यह है कि अरिहन्त परमेष्ठी आत्म-विकास के सशक्ततम विरोधी मोहनीय कर्म का क्षय करके ही अरिहन्त बनते हैं । अन्य तीन धातिया कर्म (ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी और अन्तराय) तो अस्तित्ववान होकर भी निर्जीव होकर