Book Title: Lokprakash Part 01 Author(s): Padmachandrasuri Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh View full book textPage 9
________________ (viii) शिष्यः"श्री सोम विजय' जी म० सा० तथा उपाध्याय 'श्री विनय विजय' जी गणि वर्य इन्हीं वाचक वर्य 'श्री कीर्ति विजय' जी महाराज साहब के शिष्य थे। सन् १६०५ में जामनगर से प्रकाशित पं० हीरालाल, हंसराज की गुजराती भाषा में अनुवादित 'लोक प्रकाश' की एक प्रति में ग्रन्थकार की पाट परम्परा को दर्शाने वाला एक मानचित्र (नक्शा) देखने को मिला। अविकल रूप से उसे यहाँ अंकित करना आवश्यक है - ग्रन्थकार की पाट परम्परा श्री हीर विजय सूरी (अकबर बादशाह के प्रतिबोधक) वाचक श्री कल्याण विजय जी.. वाचकवर श्री कीर्ति विजय जी श्री लाभ विजय जी उपाध्याय श्री विनय विजय (ग्रन्थ क़र्ता) श्री नय विजय जी श्री जीत विजय जी श्री पदम विजय जी श्री यशोविजय जी उपर्युक्त मानचित्र को देखने से ज्ञात होता है कि आचार्य प्रवर श्री हीर विजय सूरी' के शिष्य श्री कल्याण विजय जी तथा श्री कीर्ति विजय जी थे। हमारे ग्रन्थ कर्ता श्री विनय विजय'जी म०सा० उपाध्याय 'श्री यशोविजय' जी के समकालीन ठहरते हैं । ये दोनों ही साधु वर्य एक समुदाय में दीक्षित थे । इनमें परस्पर बहुत ही प्रेममय व्यवहार था। एक स्थान पर उल्लेख मिलता है कि किसी प्रसंग पर १२०० श्लोक प्रमाण ग्रन्थ को उपाध्याय 'श्री कीर्ति विजय' जी म.सा० तथा उपाध्याय श्री यशोविजय' जी म० सा० ने एक रात्रि में क्रमशः ५०० तथा ६०० श्लोक को कंठस्थ करके अगले दिन अविकल रूप में लिपिबद्ध कर दिया था। इससे इन मुनि द्वय की अलौकिक प्रतिभा एवं स्मरण शक्ति का सहज में ही अनुमान लगाया जा सकता है। उपाध्याय 'श्री विनय विजय' जी म. सा. जैनागमों के प्रकाण्ड विद्वान थे । इन्होने अनेकों बार शास्त्रार्थ में अन्य दर्शनाचार्यों का मत खंडन कर जिन वाणी रूप में स्थापन किया था । अनेकशः ऐसे दृष्टान्तों का उल्लेख मिलता है कि इन्होने अन्य मतावलंबियों को जिन मत में दृढ़ किया है । इतने विद्वान होते हुए भी इनमें विनय भाव अत्यधिक था। यथानाम तथा गुण के आधार पर 'श्री विजय विजय' जी गणिमहाराज पूर्ण रूपेण खरे उतरते हैं । इनकी विनय भक्ति और उदारता का दृष्टान्त है कि किसी समय पर खंभात मेंPage Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 634