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[ १५ ]
गुणश्रेणिसे संख्यातगुणी आयामवाली अवस्थित गुणश्रेणिको रचना करता है। इस करणमें बन्ध प्रकृतियोंका अधःप्रवृत्त संक्रम होता है । अबन्ध प्रकृतियोंका विष्यात संक्रम होता है। यहाँ गुणसंक्रम नहीं होता।
अपूर्वकरणसे उपशमश्रेणिपर चढ़ने और उतरने में जितना काल लगता है उससे द्वितीयोपशम सम्यक्त्वका काल संख्यातगुणा है। यतिवृषभ आचार्यके उपदेशानुसार यदि उपशम श्रेणिसे उतरकर और सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर मरता है तो मर कर वह नरकगति, तिर्यञ्चगति और मनुष्यगतिमें जन्म नहीं लेता, नियमसे देव होता है, क्योंकि जिसके नरकायु, तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुकी सत्ता होती है वह देशसंयम और सकल संयमको प्राप्त करने में असमर्थ होनेके कारण उपशमश्रेणिपर आरोहण करने में असमर्थ है । इसलिए वहाँसे उतरकर और मरणकर उसका उक्त तीन गतियों को प्राप्त करना किसी भी अवस्थामें नहीं बन सकता । किन्तु आचार्य भूतबलिके उपदेशानुसार उपशमश्रेणिसे उतरा हुआ मनुष्य सासादन गुणस्थानको नहीं प्राप्त होता ऐसा प्रकृतमें जानना चाहिये । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि उपशमश्रेणिपर चढ़ते समय जिस स्थानपर जिन प्रकृतियों की बन्धव्युच्छित्ति होतो है, उतरते समय उस स्थानको प्राप्त होने पर उनका पुनः बन्ध होने लगता है। तथा उतरते समय संज्वलन क्रोधादि चार और तीन वेद इनमेसे जिस प्रकृतिका जिस स्थानपर पुनः उदय होता है उसकी गुणश्रेणिरचना करता है आदि ।
___ यह मुख्यतया पुरुषवेद और क्रोधसं वलनके उदयसे चढ़े हुए जीवकी अपेक्षा प्ररूपणा है । किन्तु जो पुरुषवेदके साथ मान, माया या लोभसंज्वलनके उदयसे श्रेणिपर आरोहण करता है उसमें कुछ विशेषता है, वह विशेषता यह है कि यदि मानके उदयसे श्रेणिपर आरोहण करता है तो क्रोधके उदयसे श्रेणिपर चढ़े हुए जीवकी जितनी क्रोध और मानके निमित्तसे प्रथम स्थिति होती है उतनी अकेले मानके उदयसे श्रेणिपर आरोहण करनेवालेको होती है । क्रोधके उदयसे श्रेणिपर चढ़े हए जीवके क्रोध, मान और मायाके निमित्तसे जितनी प्रथम स्थिति होती है उतनी अकेले मायाके उदयसे चढ़े हए जीवके होती है। तथा क्रोधके उदयसे चढ़े हुए जीवके क्रोधादि चारोंके निमित्त से जितनी प्रथम स्थिति होती है। उतनी अकेले लोभके उदयसे चढ़े हुए जीवके होती है।
जिस कषायके उदयसे श्रेणिपर आरोहण करता है उसकी प्रथम स्थिति अन्तमुहर्त प्रमाण स्थापित कर अन्तर करता है तथा शेष कषायोंकी एक आवलि प्रमाण प्रथम स्थिति स्थापित कर अन्तर करता है । एक यह भी नियम है कि क्रोधादि जिस कषायके उदयसे श्रेणिपर आरोहण करता है उसकी प्रथम स्थिति समाप्त होनेपर उसके अनन्तर समयमें उससे अगली मायादि कषायकी प्रथम स्थिति स्थापित करता है । क्रोधके उदयसे चढ़ा हुआ जीव जिस स्थानपर क्रोधत्रयको उपशमाता है, मानके उदयसे चढ़ा हआ जीव उसी स्थानपर क्रोधत्रयको उपशमाता है आदि । तात्पर्य यह है कि किसी भी कषायके उदयसे श्रेणिपर आरोहण करे, परन्तु विवक्षित कषायके उपशमानेका जो स्थान है वहीं उसको उपशमाता है।
उपशमला
उपशमश्रेणिसे उतरते समय जो क्रोधके उदयसे श्रेणि चढ़ता है उसके लोभ, माया, मान और क्रोधका उदय क्रमसे होता है, इसलिए इन कषायोंमेंसे प्रत्येककी अपेक्षा अलग-अलग गलितशेष गुणश्रेणि होती है । जो मानके उदयसे श्रोणि चढ़कर गिरता है उसके क्रमसे लोभ और मानका उदय होता है, इसलिए इसके मानका उदयकाल क्रोध और मानके उदयकाल प्रमाण होता है। यह तीन प्रकारके मानका अपकर्षणकर ज्ञानावरणादिकी गुणश्रेणिके आयामप्रमाण गलितशेष गुणधणि करता है। जो मायाके उदयसे श्रेणि चढ़कर गिरता है उसके क्रमसे लोभ और मायाका उदय होता है, इसलिए इसके मायाका उदयकाल क्रोध, मान और मायाके उदयकाल प्रमाण होता है । यह तीन प्रकारको मायाका अपकर्षणकर
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