Book Title: Kasaypahudam Part 09 Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh View full book textPage 9
________________ [8] निर्गभके पाठ भेदोंका निर्देश करते हुए प्रकृतिसंक्रमके उक्त दोनों भेदोंमें संक्रम, असंक्रम, प्रतिग्रहविधि और अप्रतिग्रहविधि इन चारोंको दो दो प्रकारका बतलाया है। यह तीन मूलगाथाओंका विषयस्पर्श है। प्राचार्य यतिवृषभने अपने चूर्णिसूत्रों द्वारा इन गाथाश्रोंके प्रत्येक पदका स्वयं खुलासा किया है। तथा जयधवला टीकामें भी इसपर विशेष प्रकाश डाला गया है। एकैकप्रकृतिसंक्रम श्रागे एकैकप्रकृतिसंक्रममें एकैकप्रकृति असंक्रम, प्रकृति प्रतिग्रह और प्रकृति अप्रतिग्रह इन अन्य तीन निगमोंको अन्तर्भूत करके उसका २४ अनुयोगद्वारोंके श्राश्रयसे निरूपण किया है। वे २४ श्रनुयोगद्वार ये हैं—समुत्कीर्तना, सर्वसंक्रम, नोसर्वसंक्रम, उत्कृष्टसंक्रम, अनुत्कृष्टसंक्रम, जघन्यसंक्रम, . अजघन्यसंक्रम, सादिसंक्रम, अनादिसंक्रम, ध्रुवसंक्रम, अध्रुवसंक्रम, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, सनिकर्ष, भाव और अल्पबहुत्व । इनमेंसे प्रारम्भके ११ अनुयोगद्वारोंका सूत्रकारने वर्णन नहीं किया है। जयधवलामें उनका उच्चारणाके अनुसार निर्देश किया गया है । उसके अनुसार खुलासा इस प्रकार है समुत्कीर्तना-श्रोघसे सब प्रकृतियोंका संक्रम होता है। चारों गतियों में भी इस प्रकार जानना चाहिए । मात्र अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धिमें सम्यक्वका असंक्रम है। . सर्व नोसर्वसंक्रम-सब प्रकृतियोंका संक्रम करनेवालेके सर्वसंक्रम होता है और उनसे कम प्रकृतियोंका संक्रम करनेवालेके नोसर्वसंक्रम होता है। उत्कृष्ट-अनुकृष्टसंक्रम-२७ प्रकृतियोंका संक्रम करनेवालेके उत्कृष्टसंक्रम होता है और इनसे कमका संक्रम करनेवालेके अनुत्कृष्टसंक्रम होता है। जघन्य अजघन्यसंक्रम-सबसे कम प्रकृतियोंका संक्रम करनेवाले के जघन्यसंक्रम होता है और इससे अधिकका संक्रम करनेवालेके अजघन्यसंक्रम होता है। यहाँ संख्याकी अपेक्षा उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट तथा जघन्य-अजन्यका विचार करना चाहिए। . सादि-अनादि-ध्रुव-अध्रवसंक्रम - श्रोघसे दर्शन मोहनीयकी तीन प्रकृतियोंका सादि और अध्रवसंक्रम होता है, शेषका सादि श्रादि चारों प्रकारका संक्रम होता है। चारों गलियों में सबका सादि और अध्रुवसंक्रम होता है। - एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व-इस अनुयोगद्वारमें मिथ्यात्व श्रादि २८ प्रकृतियोंके संक्रमके स्वामीका निर्देश किया है। उदाहरणार्थ मिथ्यात्वका संक्रम सब वेदकसम्यग्दृष्टि जीव और सासादनके बिना उपशमसम्यग्दृष्टि जीव करते हैं। बेदकसम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वका संक्रम करते हैं, चूर्णिके इस वचनका खुलासा करते हुए उसकी जयधवला टीकामें बतलाया है कि जिन वेदक सम्यग्दृष्टियोंके संक्रमके योग्य मिथ्यात्वकी सत्ता है, बेदक सम्यग्दृष्टियों में वे ही उसका संक्रम करते हैं। इसी प्रकार सब प्रकृतियोंके संक्रमके स्वामीका निर्देश इस अनुयोगद्वारमें किया गया है। प्रसंगसे यह भी बतला दिया है कि दर्शन मोहनीयका चरित्रमोहनीयमें और चरित्रमोहनीयका दर्शनमोहनीयमें संक्रम नहीं होता। जयधवला टीकामें चूर्णिसूत्रोंके अर्थका स्पष्टीकरण कर इतना और बतलाया है कि चारों गतियोंमें इसीप्रकार जानना चाहिए। मात्र अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सम्यकत्वका संक्रम सम्भव न होनेसे २७ प्रकृतियोंके संक्रमका निर्देश किया है।Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 590