Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 8
________________ विषय-परिचय यह बन्धक नामका घटा अधिकार है। इसके बन्ध और संक्रम ये दो भेद हैं। जिस अनुयोग बारमें कर्मवर्गणाओंका मिथ्यात्व श्रादिके निमित्तसे प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारके कर्मरूप परिणमकर श्रात्मप्रदेशोंके साथ एक क्षेत्रावगाहरूप बन्धका व्याख्यान किया गया है बहबम्ब अधिकार है और जिसमें बन्धरूप मिथ्यात्व श्रादि कर्मोका प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से अन्य कर्मरूप परिणमनका विधान किया गया है वह संक्रम अधिकार है। इस प्रकार इस बन्धक अधिकारमें बन्ध और संक्रम इन दो विषयोंका व्याख्यान किया गया है। प्रश्न यह है कि बन्धक अधिकारमें बन्धका व्याख्यान हो यह तो ठीक है परन्तु उसमें संक्रमका व्याख्यान कैसे किया जा सकता है? समाधान यह है कि संक्रमका भी बन्धमें ही अन्तर्भाव होता है, क्यों कि बन्धके दो भेद हैएक अफर्मबन्ध और दूसरा कर्मबन्ध । जो कार्मणवर्गणाएं कमरूप परिणत नहीं हैं उनका कर्मरूप परिणत होना यह अकर्मबन्ध है और कर्मरूप परिणत पुद्गलस्कन्धोंका एक कर्मसे अपने सजातीय अन्य कर्म का परिणभना कर्मबन्ध है। यही कारण है कि इस वन्धक अधिकारमें बन्ध और संक्रम दोनोंका समावेश किया है। इस विषयका विशेष व्याख्यान करने के लिए कदि पयडीश्रो बंधदि' २३ संख्यावाली मूलगाथा आई है और इसी आधारपर प्राचार्य यतिवृषभने अपने उत्तर भेदों के साथ बन्धक अधिकारके अन्तर्गत बन्ध और संक्रम ये दो अधिकार सूचित किये हैं। उनमेंसे चारों प्रकारके बन्धका विस्तृत व्याख्यान अन्यत्र बहत बार या विस्तार से किया गया जानकर मुणधर श्राचार्य और यतिवृषभ श्राचार्य दोनोंने यहाँ उसका व्याख्यान न कर मात्र संक्रमका विशेष व्याख्यान किया है। संक्रम यतिवृषभ श्राचार्यने संक्रमफा उपक्रम पाँच प्रकारका किया है-श्रानुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार । उसके बाद संक्रमका निक्षेप करते हुए वह नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, कान और भावके भेदसे छह प्रकारका बतलाकर कौन नय किन निक्षेपरूप संक्रमोंको स्वीकार करता है इसका व्याख्यान किया है और अन्तमें क्षेत्रसंक्रम, कालसंक्रम और भावसंक्रमका खुलासा करनेके साथ नोश्रागमद्रव्यसंक्रमनिक्षेपके कर्म और नोकर्म ऐसे दो भेद करके तथा उनका संक्षेपमें व्याख्यान करते हुए कर्मसंक्रमके प्रकृति, स्थिति अनुभाग और प्रदेश ऐसे चार भेद करके और प्रकृतिसंक्रमको भी एकैकप्रकृतिसंक्रम और प्रकृतिस्थानसंक्रम ऐसे दो भेद करके प्रकृतमें प्रकृतिसंक्रमसे प्रयोजन है यह बतलाफर उसके व्याख्यानका प्रारम्भ किया है। प्रकृतिसंक्रम प्रकृतिसंक्रमके व्याख्यानमें २४, २५ और २६ संख्याकी तीन गाथाएँ आई हैं। उनमें से प्रथम गाथामें पाँच प्रकारके उपक्रम, चार प्रकारके निक्षेप, नयविधि और अाठ प्रकारके निर्गमका संकेत कर दूसरी गाथामें प्रकृतिसंक्रमके एकैकप्रकृतिसंक्रम और प्रकृतिस्थानसंक्रम ऐसे दो भेद करके संक्रममें प्रतिगृह-विधि उत्तम और जघन्यके भेदसे दो प्रकारकी बतलाई है। तथा तीसरी गाथामें

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