Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
$ ६. आदेसेण णिरय० पोरइएस मोह० उक० पदेस० सव्वजी० के० १ असंखे ० भागो । अणुक्क० असंखेज्जा भागा । एवं सव्वणेरइय - सव्वपंचिंदियतिरिक्खमणुस्स- मणुस अपज ० -देव-भवणादि जाव अवराइदो ति । मणुसपज० - मणुसिणी०सव्वडसिद्धि० उक्क० पदेसवि० सव्व० केवडि ० १ संखे ० भागो । अणुक्कस्स० संखेजा भागा । एवं दव्वं जाव अणाहारि ति ।
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७. जहण्णए पयदं । दुविहो णि० – ओघेण आदे० | ओघेण मोह जहण्णाजहण्ण• उक्कस्साकस्स० भंगो । एवं सव्वमग्गणासु णेदव्वं जाव अणाहारिति । $ ८. पदेसभागाभागाणुगमेण दुविहो णि० – ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० भागाभागो णत्थि, मूलपयडिअप्पणाए पदभेदाभावादो' । अधवा मोहणीयसव्यपदेसा सेससंतकम्मपदेसेहिंतो किं सरिसा असरिसा ति संदेहेण विणडिय -
९६. आदेश से नरकगतिमें नारकियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सब नारकी जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यन, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धिके देवों में उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
$ ७. जघन्यसे प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकर्मकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिवालोंका भागाभाग उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालोंके भागाभाग की तरह होता है । इस प्रकार अनाहारीपर्यन्त सर्व मार्गणाओं में जाना चाहिये ।
विशेषार्थ - जिन जीवोंकी संख्या अनन्त है उनमें अनन्तैकभाग जीव उत्कृष्ट प्रदेश विभक्तिवाले होते हैं और अनन्त बहुभाग जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले होते हैं । जिनकी संख्या असंख्यात है उनमें असंख्यातैकभाग जीव उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले और असंख्यात बहुभाग जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले होते हैं । तथा जिनकी संख्या संख्यात है उनमें संख्यातैकभाग जीव उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले और संख्यातबहुभाग जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले होते हैं । इसी प्रकार जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिवालोंका भागाभाग होता है, क्योंकि उत्कृष्ट प्रदेशसंचय और जघन्य प्रदेशसंचयकी सामग्री सुलभ नहीं है जैसा कि आगे स्वामित्वानुगमसे ज्ञात होगा ।
§ ८. प्रदेशभागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयका भागाभाग नहीं है, क्योंकि मूलप्रकृतिविभक्तिकी अपेक्षा पदभेद नहीं है । अथवा मोहनीय कर्म सब प्रदेश शेष सत्कर्मप्रदेशोंके समान होते हैं अथवा असमान होते हैं इस सन्देहसे व्याकुल शिष्यकी बुद्धिकी व्याकुलताको दूर करने के
१. ता० प्रतौ 'पदेस भेदाभावादो' इति पाठः । २. ता०प्रतौ 'विगडिय' इति पाठः ।
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