Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ गा० २२] मुलपयडिपदेसविहत्तीए भागाभागं ६३. मूलपयडिपदेसविहत्तीए परविदाए पच्छा उत्तरपयडिपदेसविहत्ती परूविदव्वा त्ति एदेण वयणेण जाणादिं । तेणेदं देसामासियं सुत्तं । एदस्स विवरणटुं परूविदउच्चारणमेत्थ भणिस्सामो ४. पदेसहित्ती दुविहा--मूलपयडिपदेसविहत्ती उत्तरपडिपदेसविहत्ती चेव । मूलपयडिपदेसविहत्तीए तत्थ इमाणि बाबीस अणिओगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति । तं जहा-भागाभाग १ सव्वपदेसविहत्ती २ णोसव्वपदेसविहत्ती ३ उक्कस्सपदेसविहत्ती ४ अणुक्कस्सपदेसविहत्ती ५ जहण्णपदेसविहत्ती ६ अजहण्णपदेसविहत्ती ७ सादियपदेसविहत्ती ८ अणादियपदेसविहत्ती ९ धुवपदेसविहत्ती १० अर्द्धवपदेसविहत्ती ११ एगजीवेण सामित्तं १२ कालो १३ अंतरं १४ णाणाजीवेहि भंगविचओ १५ परिमाणं १६ खेत्तं १७ पोसणं १८ कालो १९ अंतरं २० भावो २१ अप्पाबहुअं २२ चेदि । पुणो भुजगार-पदणिक्खेव-वडि-हाणाणि त्ति । ५. संपहि भागाभागं दुविहं—जीवभागाभागं पदेसभागाभागं चेदि । तत्थ जीवभागाभागं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं० । उक्कस्से पयदं। दुविहोणिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह. उकस्सपदेसविहत्तिया' जीवा सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? अणंतिमभागो । अणुक्कस्सपदेस० जीवा सव्वजी० अणंता भागार । एवं तिरिक्खोघं । ३. मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्तिका कथन करके पीछे उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति कहनी चाहिये यह इस चूर्णिसूत्रके द्वारा जताया गया है। अतः यह सूत्र देशामर्षक है, इसलिए इसका व्याख्यान करनेके लिये कही गई उच्चारणावृत्तिको यहाँ कहते हैं ६४. प्रदेशविभक्ति दो प्रकारकी है-मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्ति और उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति । उनमेंसे मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्तिमें ये बाईस अनुयोगद्वार जानने योग्य हैं। वे इस प्रकार हैं-भागाभाग १, सर्वप्रदेशविभक्ति २, नोसर्वप्रदेशविभक्ति ३, उत्कृष्टप्रदेशविभक्ति ३, अनुत्कृष्टप्रदेशविभक्ति ५, जघन्यप्रदेशविभक्ति ६, अजघन्यप्रदेशविभक्ति ७, सादिप्रदेशविभक्ति ८, अनादिप्रदेशविभक्ति ९, ध्रवप्रदेशविभक्ति १०, अध्रवप्रदेशविभक्ति ११, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व १२, काल १३, अन्तर १४, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय १५, परिमाण १६, क्षेत्र १७, स्पर्शन १८, काल १९, अन्तर २०, भाव २१ और अल्पबहुत्व २२ । इनके सिवा भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान ये अनुयोगद्वार और भी हैं। ६५. अब भागाभागको कहते हैं। वह दो प्रकारका है-जीवभागाभाग और प्रदेशभागाभाग। उनमेंसे जीवभागाभाग दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश विभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके अनन्त बहुभागप्रमाण हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्यश्चोंमें जानना चाहिए। १. आ०प्रतौ 'मोह° उक्कस्सिये पदेविहत्तिया' इति पाठः। २. भाप्रतौ 'अणंता भागं' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 ... 404