Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 13
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेस विहत्ती ५ ६१. 'पयडीए मोहणिञ्जा ० ' एदिस्से विदियमूलगाहाए पुरिमम्मि णिलीणपयडि-हिदि-अशुभागविहत्तीओ परूविय संपहि तिस्से चैव गाहाए पच्छिमम्मि ' अवदिउकस्समणुक्कसं ति पदेण सूचिदपदेसविहत्तिं भणिस्सामो । एदेण पदेण पदेसविहत्ती कथं सूचिदा ? उच्चदे - उकस्सं ति पदेण उक्कस्सपदेस विहत्ती परूविदा | अस्सं ति पदेण वि अणुक्कस्सविहत्ती जाणाविदा । जेणेदाणि वि दो वि पदाणि देसामासियाणि तेण एत्थ मूलुत्तरपय डिपदेसविहत्तिगन्भा पदेसविहत्ती णिलीणा ति दट्ठव्वं । तत्थ * पदेसविहत्ती दुविहा- मूलपयडिपदेसविहत्ती च उत्तर पयडिपदेसविहत्ती च । २. एवं पदेसविहत्ती दुविहा चेव होदि, तदियादिपदेस विहत्तीणमसंभवादो । एत्थतण 'च' सदो उत्तसमुच्चयट्ठोत्ति दट्ठव्वो । ण विदिओ 'च' सदो अणत्थओ, दुविहयाग्गहमवट्टिदाणं दोन्हं 'च' सद्दाणमेयत्थत्ताभावादो * । * तत्थ मूलपयडिपदेसविहत्तीए गदाए । $ १. 'पयडीए मोहणिज्जा ० ' इस दूसरी मूल गाथाके पूर्वार्ध में समाविष्ट प्रकृतिविभक्ति, स्थितिविभक्ति और अनुभागविभक्तिका कथन करके अब उसी गाथाके उत्तरार्ध में आये हुए 'उक्कस्समणुक्कस्सं' पदके द्वारा सूचित होनेवाली प्रदेशविभक्तिको कहेंगे । शंका- 'उक्कस्समणुक्कस्तं' इस पद से प्रदेशविभक्ति कैसे सूचित हुई ! समाधान- 'उक्करसं' इस पदके द्वारा उत्कृष्ट प्रदेशबिभक्ति कही गई है और 'अणुकरसं ' इस पदके द्वारा अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति कही गई है । यतः ये दोनों पद देशामर्षक हैं अतः यहाँ मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्ति और उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्तिरूप प्रदेशविभक्ति गर्भित है, ऐसा जानना चाहिये । वहाँ * प्रदेशविभक्ति दो प्रकारकी है— मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्ति और उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति । ९२. इस प्रकार प्रदेशविभक्ति दो प्रकारकी ही होती है, क्योंकि तीसरी आदि प्रदेशविभक्तियाँ संभव नहीं हैं । यहाँ पर जो 'च' शब्द आया है वह उक्त अर्थका समुच्चय करने के लिये है ऐसा समझना चाहिये । यदि कहा जाय कि उक्तका समुच्चय एक ही 'च' शब्दसे हो जाता है अतः चूर्णिसूत्रमें आया हुआ दूसरा 'च' शब्द व्यर्थ है सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि दो 'च' शब्द द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयकी अनुकूलता बतलानेके लिये दिये गये हैं, अतः वे दोनों एकार्थक नहीं हैं । * उनमेंसे मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्तिके समाप्त होने पर । १. प्रतौ 'पुरिमत्थम्मि' इति पाठः । २. श्रा० प्रतौ 'पच्छिमत्थम्मि' इति पाठः । ३. श्र०प्रतौ ' - पदेसविहत्ती उत्तर -' इति पाठः । ४ ता प्रतौ 'चसद्दाणमेय तत्थाभावादो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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