Book Title: Karm Vignan Part 09 Author(s): Devendramuni Publisher: Tarak Guru Jain GranthalayPage 22
________________ * १८ * कर्म सिद्धान्त: बिंदु में सिंधु * स्वयं आगारधर्म से अनगारधर्म अंगीकार किया। आम जनता को भी अपने जीवन द्वारा इन दोनों धर्मों का उपदेश दिया। दोनों धर्मों का लक्ष्य एक ही था - सर्वकर्मों से मुक्ति पाना । इसलिए कर्मवाद के प्रथम उपदेशक.. आविष्कारक एवं प्रेरक भगवान ऋषभदेव कहे जा सकते हैं। जैन परम्परा के कर्मवाद का प्रभाव वैदिक-परम्परा पर भी पड़ा। उन्होंने अदृष्ट के रूप में 'कर्म' की तथा 'देव' के रूप में 'अपूर्व' की कल्पना की, तथा सृष्टि के अनादि होने की मान्यता को भी स्वीकार किया । कर्मवाद का आविर्भाव और तिरोभाव उसके पश्चात् इस अवसर्पिणीकाल में कालक्रम से हुए चौबीस तीर्थंकरों ने अपने-अपने में युग कर्मसिद्धान्त का युक्ति, सूक्ति और अनुभूति के आधार पर प्रचार-प्रसार किया। एक तीर्थंकर के पश्चात् दूसरे तीर्थंकर के होने में सैकड़ों हजारों और कभी-कभी तो लाखों वर्षों का अन्तराल हो जाता है। इ लम्बे व्यवधान में जनता की तत्त्वज्ञान की स्मृति, धारणा और परम्परा को धूमिल कर देता है, इस कारण बीच-बीच में कर्मवाद का तिरोभाव भी हुआ। भगवान अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ और महावीर के जीवनकाल में घटित उदाहरण देकर कर्मविज्ञान ने सिद्ध किया है कि आविर्भाव तिरोभाव के बावजूद भी कर्मसिद्धान्त का आम जनता पर गहरा और सीधा प्रभाव पड़ता रहा। भगवान महावीर ने वैदिक परम्परा के उद्भट विद्वान् ग्यारह विप्रों को भी उनकी कर्मवाद से सम्बन्धित शंकाओं का समाधान करके उन्हें अपने धर्मसंघ में शिष्यों सहित दीक्षित किया और ग्यारह ही विद्वानों को गणधर पद से विभूषित किया । भगवान महावीर को कर्मसिद्धान्त को अपने जीवन के अनुभवों से जोर-शोर से प्रचारित और प्रसारित करने का सहज अवसर प्राप्त होने में तीन बड़े-बड़े बाधक कारण थे - ( १ ) वैदिक परम्परा की ईश्वर-सम्बन्धी भ्रान्त मान्यता, (२) बौद्धधर्म के एकान्त क्षणिकवाद की युक्ति-विरुद्ध मान्यता, और (३) वेदान्त द्वारा जगत् के जड़-चेतन सभी पदार्थों एकमात्र ब्रह्म (आत्मा) के अन्तर्गत स्वीकार । कर्मविज्ञान युक्ति-प्रमाणपूर्वक इन तीनों भ्रान्त मान्यताओं का निराकरण किया है। कर्मवाद के समुत्थान की ऐतिहासिक समीक्षा कर्मविज्ञान के समक्ष जब यह प्रश्न आया कि कर्मवाद का समुत्थान कबसे और किनके द्वारा हुआ जैन- कर्मविज्ञान विशारदों ने एकमत से यह निर्धारित किया कि वर्तमान में जितना भी तत्त्वज्ञान है तथा जो भी आगम या द्वादश अंगशास्त्र हैं, वे सभी भगवान महावीर के उपदेश की सम्पत्ति हैं। इसलिए कर्मवाद के आद्य समुत्थान का श्रेय भगवान महावीर को है और इसे ही निःशंकरूप से समुत्थानकाल समझना चाहिए। वर्तमान में कर्मविज्ञान के सम्बन्ध में जो भी व्याख्याएँ, टीकाएँ या निर्युक्ति, भाष्य आदि हैं, उन सभी का और दूसरे शब्दों में कहें तो कर्मवाद के समुत्थान एवं विकास का मूल स्रोत 'कर्मप्रवादपूर्व' नामक महाशास्त्र है। वैदिक आदि परम्पराओं में कर्मवाद का व्यापक विकास नहीं वैदिक-परम्पराओं में भी कर्मवाद का विकास हुआ है, परन्तु देववाद, यज्ञवाद एवं पुरोहितवाद के प्राबल्य से कर्मवाद का युक्ति-तर्क संगत स्पष्ट एवं व्यवस्थित विश्लेषण इस परम्परा में नहीं हुआ, किन्तु जैन-कर्मविज्ञान-तत्त्वज्ञों ने कर्मतत्त्व के प्रत्येक पहलू पर सांगोपांग चिन्तन, मनन एवं विश्लेषण किया है। साथ ही कर्मवाद के सम्बन्ध में लोकमानस में उठती हुई शंकाओं का एवं युग-समस्याओं का बहुत ही सुन्दर ढंग से युक्तियुक्त समाधान किया है। सांख्य और योगदर्शन ने तथा बौद्धदर्शन ने कर्मवाद पर अपने-अपने ढंग से चिन्तन अवश्य किया है, परन्तु इन तीनों ने प्रायः ध्यान एवं तत्त्व - चिन्तन पर ही अधिक जोर दिया है। जैन-कर्मतत्त्व-मर्मज्ञों ने कर्मवाद की व्यापकता और बारीकी पर सर्वाधिक ध्यान दिया, फलतः कर्मवाद के सम्बन्ध में अनेकों ग्रन्थों की रचना हुई, जिनमें इसकी पूर्वापर शृंखलाबद्ध क्रमबद्ध. मुव्यवस्थित एवं व्यापक रूप से जीवन के सभी क्षेत्रों का स्पर्श करती हुई व्याख्या है। कर्मवाद का उत्तरोत्तर विकास क्रमशः तीन महायुगों में कर्मवाद का यह उत्तरोत्तर विकास क्रमशः तीन महायुगों में हुआ है - ( १ ) पूर्वात्मक कर्मशास्त्र, (२) पूर्वोद्धृत कर्मशास्त्र, एवं (३) प्राकरणिक कर्मशास्त्र । सर्वप्रथम पूर्वात्मक रूप में ( कर्मप्रवादपूर्व तथा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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