Book Title: Karm Vignan Part 09 Author(s): Devendramuni Publisher: Tarak Guru Jain GranthalayPage 21
________________ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * १७ * भगवान महावीर आदि ने मोक्ष-पुरुषार्थ को प्रधानता दी - भारतीय संस्कृति के पुरस्कर्ताओं द्वारा मान्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चार पुरुषार्थों में से भगवान महावीर ने तथा अनेकानेक श्रमण-श्रमणियों को सर्वकर्ममुक्त परमात्मा बनने के लिए मोक्ष-पुरुषार्थ को प्रधानता दी। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तपरूप सद्धर्म को उक्त मोक्ष-पुरुषार्थ का मार्ग बताया। अर्थ और काम-पुरुषार्थ को कर्मक्षय का कारण बनाकर शुद्ध धर्म-पुरुषार्थ के नियंत्रण में रहने पर कदाचित् पुण्य, कदाचित् यतना रखने पर शुभ योग-संवर हो सकता है। कर्मवादियों के दो दल : द्वितीय दल ने सर्वकर्ममुक्त होने की प्रक्रिया अपनाई साथ ही यह भी बताया गया है उस युग में कर्मवादियों के दो दल थे-एक प्रवर्तक-धर्मवादी और दूसग निवर्तक-धर्मवादी। प्रवर्तक-धर्मवादी स्थूल क्रियाकाण्डों पर जोर देते थे और उससे संवर-निर्जरा न होने से केवल स्वर्ग तक प्राप्त हो सकता था, मोक्ष नहीं। जबकि निवर्तक-धर्मवादी मोक्ष-पुरुषार्थ पर जोर देते थे. जिसे वे शुद्ध धर्म के पालन तथा संवर-निर्जरा द्वारा अर्जित कर लेते थे। भविष्य में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाते थे। निवर्तक-धर्मवादी मनीषियों ने कर्मों के आसव, बन्ध, संवर और निर्जरा के कारणों पर गहन चिन्तन किया और कर्म-तत्त्व से सम्बन्धित सभी पहलुओं पर विचार किया। कर्मसिद्धान्त-विशेषज्ञों ने कर्मशास्त्र-विपयक कई ग्रन्थ भी लिखे। यह वर्ग.मोक्ष-सम्बन्धी प्रश्नों को हल करने से पूर्व कर्म से सम्वन्धित सभी प्रश्नों को गहराई से सोचने-समझने और समझाने लगा। एक प्रश्न अन्य दार्शनिकों द्वारा उठाया जाता है कि मोक्ष-पुरुषार्थ प्रवृत्तिरूप होने से उससे कर्मों से मुक्ति कैसे हो सकती है ? इस प्रश्न का समाधान यह है कि मोक्ष-पुरुषार्थ प्रवृत्तिरूप है, किन्तु वह प्रवृत्ति यौगिक नहीं, आत्मस्वरूप में परिणतिरूप है। साथ ही वहाँ कषाय आदि से निवृत्तिरूप संवर तथा स्वभाव-रमणरूप चारित्र भी है। यद्यपि तेरहवें गुणस्थान में साम्यरायिक क्रिया न होकर. ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, जो कषाय या राग-द्वेषादि से रहित होती है। फिर भी ऐर्यापथिकी क्रिया शुभाम्रवकारक होते हुए भी उसमें स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध नहीं होता; सिर्फ प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध होता है, वह भी नाममात्र का होता है। प्रथम समय में आम्रव. द्वितीय समय में बन्ध होकर वह कर्म झड़ जाता है। इसलिए वहाँ भी अयोग-अवस्था होते ही मोक्ष-प्राप्ति हो जाती है। अतः चाहे उच्च साधक हो या गृहस्थ साधक अपनी-अपनी धर्म-मर्यादा में रहते हुए मोक्ष को लक्ष्य में रखकर धर्म-पुरुषार्थ के नियंत्रण में किया गया अर्थ-काम-पुरुषार्थ अनुचित नहीं माना गया है। यतनापूर्वक प्रत्येक प्रवृत्ति करने से वह पापकर्मबन्धक नहीं होती। इसके अतिरिक्त सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप-संयम आदि की आराधना लोकोत्तर-साधना केवल कर्मक्षय की दृष्टि से की जाती है, तो वहाँ वह साधना या प्रवृत्ति संवर-निर्जरारूप या अबन्धक होती है। उत्तराध्ययनसूत्र में अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति को व्यवहारचारित्र तथा संयम बताया गया है। वहाँ कहा गया है कि असंयम से निवृत्ति और भाव-संयम में प्रवृत्ति कर्मबन्ध का कारण न होकर कर्मक्षय का शुभानव के निरोध का कारण हो सकता है। इस सम्बन्ध में भी कर्मविज्ञान ने सरस, सुन्दर समाधान प्रस्तुत किया है। कर्मयाद का आविर्भाव : एक अनुचिन्तन ___ जैन-कर्मविज्ञान-मर्मज्ञों के समक्ष जब यह प्रश्न आया कि जैनदृष्टि से कर्मवाद का आविर्भाव कब से हुआ? तो उन्होंने प्रागैतिहासिककालीन आदि-तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के जीवन पर आद्योपान्त दृष्टिपात करके भोगभमिका की समाप्ति तथा कर्मभमिका के प्रारम्भ में यौगलिक जनता को असि-मसि-कषि आदि प्रतीकों के माध्यम से तीन वर्गों में विभक्त करके विविध कार्य (कर्म) सौंपे तथा इन कर्मों को धर्म-मर्यादा में करते हुए कर्म का निरोध करने के साथ ही पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करने के लिए सम्यग्दृष्टिपूर्वक शुद्ध धर्म का प्रशिक्षण एवं उपदेश दिया। उन्होंने बताया कि आत्मा के साथ कर्म प्रतिक्षण बँधता है. वैसे ही धर्म-पुरुषार्थ से छूट भी सकता है। इस दृष्टि से यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि भगवान ऋषभदेव से कर्मवाद का व्यवस्थित रूप से आविर्भाव हुआ और भगवान ऋषभदेव ने आत्मा के साथ लगे हुए कर्मों का निरोध और क्षय करने हेतु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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