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* कर्म - सिद्धान्त: बिंदु में सिंधु *१५*
सके, वह कैसे दूर हो सकता है, कैसे बँधता है, कैसे कर्मों से छुटकारा पाता है, 'कर्मविज्ञान' इन्हीं तथ्यों . को विशद और विस्तृत रूप से बताता है।
संसारी आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध अनादि है या आदि ?
निष्कर्ष यह है कि बद्ध आत्मा (संसारी जीव) और मुक्त आत्मा (सिद्ध जीव ) के बीच कर्म का एक सूत्र है, जो मुक्त आत्मा तक पहुँचने तक में संसारी (बद्ध) आत्मा को अनेक उपाधियों से युक्त बना देता है। बद्ध आत्मा कर्म से मुक्त है, मुक्त आत्मा कर्मों से सर्वथा मुक्त हो जाता है।
संसारी आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध प्रवाहरूप से अनादि है, किन्तु एक विशेष कर्म की अपेक्षा से सादि है। दूसरी दृष्टि से देखें तो आत्मा अनादि है तो कर्म भी अनादि है। यानी संसार अनादि है तो कर्म भी अथवा जीव और कर्म का सम्बन्ध भी अनादि है। जीव और कर्म के अनादि सम्बन्ध के विषय में कर्मविज्ञान का समाधान है कि जैसे मुर्गी और अण्डे, बीज और वृक्ष में कौन पहले, कौन पीछे ? इसे कोई कह नहीं सकता, इसी प्रकार कर्म और जीव (आत्मा) की परम्परा अनादि है; स्वतः सिद्ध है।
विशुद्ध आत्मा के कर्म क्यों लगे ? : युक्तिपूर्वक समाधान
विशुद्ध आत्मा के कर्म क्यों लग गए ? कर्मविज्ञान ने इसका समाधान दिया है कि 'कारण के बिना कार्य नहीं होता' इस न्याय से राग-द्वेषादि कारण से आत्मा (जीव ) के कर्म लगे हैं और इसीलिए उन बद्ध कर्मों से मुक्त होने का उपाय कर्मविज्ञान में बताया गया है। कर्मविज्ञान का कहना है कि जीव और कर्म के सम्बन्ध परम्परा से अनादि होने से उसका अन्त हो नहीं सकता, इस भ्रान्ति को दूर करने के लिए कर्मों मुक्त होने के संवर-निर्जरामूलक विविध उपाय हैं, जिन्हें क्रमशः आगे बताये गए हैं। निष्कर्ष यह है कि संसारी जीव प्रवाहरूप से जीव और कर्म के इस अनादि सम्बन्ध को भी संवर और निर्जरा के विविध उपायों से पुरुषार्थ करके तोड़ सकता है और एक दिन सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बन सकता है।
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ईश्वरकर्तृत्व की कल्पना निराधार तथा अयुक्तिक
परन्तु ईश्वरकर्तृत्ववादी जीव और कर्म के अनादि सम्बन्ध की, संसार के अनादि होने की तथा संसारी जीव के कर्मों से सर्वथा मुक्त होकर निरंजन निराकार परमात्मा बनने की युक्ति से सहमत नहीं है. कर्मविज्ञान ने विविध युक्तियों, प्रमाणों और सर्वज्ञों की अनुभूतियों के आधार पर यह सिद्ध कर दिया है। कि निरंजन, निराकार मुक्त परमात्मा को जड़-चेतनमयी सृष्टि की रचना करने, संसारी जीवों को कर्मों से मुक्त तथा कथंचित् मुक्त करने हेतु पुनः संसार में आने, राग-द्वेषमय जगत्-कर्तृत्व के प्रपंच में पड़ने और स्वभावतः अनादि संसार की आदि मानकर उसकी रचना करने की कल्पना निराधार तथा युक्ति प्रमाणरहित है।
कर्म का अस्तित्व : कब से और कब तक ?
जिस प्रकार स्वर्ण और मिट्टी का, और घी का सम्बन्ध अनादि मानने पर भी मनुष्य के प्रयत्न-विशेषं द्वारा इन्हें पृथक्-पृथक् किया जाता है, वैसे ही आत्मा और कर्म का सम्बन्ध प्रवाहरूप से अनादि होते हुए भी दोनों को महाव्रत, समिति-गुप्ति, दशविध धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्राराधना, बाह्याभ्यन्तर तप आदि से पृथक्-पृथक् किया जा सकता है। अतः आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अभव्य जीवों की अपेक्षा से अनादि-अनन्त, भव्य जीवों की अपेक्षा से प्रवाहतः अनादि- सान्त और एक भव्य साधक के विशेष कर्म की अपेक्षा से सादि- सान्त है; यह कर्मविज्ञान ने सिद्ध कर दिया है कि प्रवाहरूप से अनन्त जीवों की अपेक्षा से संसार अनादि-अनन्त है, किन्तु एक व्यक्ति की अपेक्षा से जन्म-मरण-कर्म आदि का अन्त होने से वह अनादि-सान्त भी है। जब तक कर्म है, तब तक संसार है; जब कर्म का सर्वथा अभाव हो जायेगा, तब संसार का अन्त होकर सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष हो जायेगा ।
कर्म के प्रति अनास्थायुक्त बने रहने से महाहानि और अव्यवस्था
कतिपय आस्थाविहीन व्यक्ति कर्म का फल तत्काल न मिलने ' अथवा पापकर्म या अशुभ कर्म करने वाले का बाह्यरूप से सुखी और पुण्य कर्म या संवर- निर्जरारूप धर्म करने वाले को दुःखी देखकर कर्म के
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