Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 18
________________ * १४ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * कर्म के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए आत्मा का अस्तित्व सिद्ध किया इसका समाधान यह है कि जैनदर्शन आदि जितने भी आस्तिक दर्शन हैं, उन्होंने कर्म को आत्मा (जीव) के द्वारा कृत माना है। आत्मा को ही कर्मों का कर्ता, फलभोक्ता, क्षयकर्ता एवं विचित्रताओं व विलक्षणताओं का मूल कारण माना गया है। कर्मों का निरोध एवं क्षय करने का पुरुषार्थ भी आत्मा ही करती है। अतः कर्म का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध करने से पूर्व आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध करना अनिवार्य समझकर कर्मविज्ञान ने उनचालीस विभिन्न आगमों. शास्त्रों. प्रमाणों. यक्तियों और तर्कों द्वारा आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध किया है। इसके अतिरिक्त सांख्य, योग, न्याय, वैशपिक, वेदान्त. मीमांसा आदि आस्तिक दर्शनों द्वारा आत्मा के अस्तित्व को एक या दूसरे प्रकार से सिद्ध किया है। सभी आस्तिक दर्शनों ने आत्मा को पंचभूतात्मक. अचेटन, चतुर्धातुकात्मक, भौतिक, तज्जीव-तच्छरीरात्मक जड़ तथा इन्द्रिय, मन, बुद्धि और प्राण से भिन्न स्वतंत्र चेतन तत्त्व माना है। इसलिए आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व है। ' पूर्वजन्म और पुनर्जन्म सिद्ध होने के साथ ही आत्मा और कर्म का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है ____ कतिपय धर्म-सम्प्रदाय (इस्लाम, ईसाई आदि) आत्मा को मानते हुए भी उसका पूर्वजन्म तथा पुनर्जन्म नहीं मानते। चार्वाक तो आत्मा को ही नहीं मानता, वह तो उसी जन्म में पंचभूतों से उत्पन्न चैतन्य शरीर के नष्ट होने के साथ ही नष्ट होना मानता है। ऐसी स्थिति में पूर्वोक्त धर्म-सम्प्रदायों तथा चार्वाक आदि नास्तिक मतों का निराकरण कर्मविज्ञान ने प्रतिपादित किया है कि आत्मा (जीव) सचेतन होते हुए अचेतन (पौद्गलिक) कर्मों के साथ उसकी यात्रा प्रवाहरूप से अनादि-अनन्त है, किन्तु व्यक्तिगतरूप से अनादि-सान्त भी है, जैसे प्रति समय कर्म बँधते हैं, वैसे कर्मों का क्षय, क्षयोपशम या उपशम भी संवर और निर्जरा के कारण से होता रहता है। आत्मा (जीव) के साथ कर्मों के संलग्न (संयोग) के कारण है, वह विभिन्न गतियों और योनियों में तब तक परिभ्रमण करता रहता है, जब तक सर्वकर्मों से या चार घातिकर्मों से वह मुक्त नहीं हो जाता। इस दृष्टि से जीव का आयुष्यकर्म के कारण एक जन्म के शरीर का अन्त होकर दूसरे जन्म में जाना पुनर्जन्म है और दूसरे लोक में जाकर स्व-कर्मानुरूप नया शरीर धारण करना पूर्वजन्म है। कर्मविज्ञान ने कर्ममुक्त आत्मा को इस परिणामिनित्यत्व के कारण उसका पूर्वजन्म और पुनर्जन्म विभिन्न युक्तियों, सर्वज्ञों द्वारा प्रत्यक्ष प्रमाण से तथा आगम प्रमाण से एवं वर्तमान युग में परामनोवैज्ञानिकों एवं जैववैज्ञानिकों के द्वारा इस्लाम, ईसाई, जैन, बौद्ध, वैष्णव, शैव आदि विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों के बालक-बालिकाओं तथा विभिन्न युवा और प्रौढ़ व्यक्तियों के जीवन में हुए जातिस्मरण (पूर्वजन्म की स्मृति) ज्ञान से प्रामाणिक जाँच-पड़ताल करके प्रत्यक्ष सिद्ध करके बतलाया है। अतः पूर्वजन्म और पुनर्जन्म की विभिन्न सच्ची घटनाएँ तथा पूर्वजन्म के मानवों द्वारा प्रेतयोनि (व्यन्तरादि देवयोनि) में जन्म लेकर सम्बन्धित मानवों को अपना अस्तित्व सिद्ध करने हेतु विभिन्न प्रकार से त्रास देने या सहानुभूतिपूर्वक सहयोग देने की विभिन्न सच्ची और प्रामाणिक घटनाएँ आत्मा के तथा आत्मा (जीव) के परिणामिनित्यत्व के तथा पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के अस्तित्व को सिद्ध करने के साथ-साथ कर्म के अस्तित्व को कर्मविज्ञान ने सिद्ध कर दिखाया है। निश्चयदृष्टि से शुद्ध आत्मा में अशुद्धि कब से, क्यों और कब तक ? जैनदर्शन निश्चयदृष्टि से संसारी आत्मा और सिद्ध-परमात्मा में कोई अन्तर नहीं मानता, इस अपेक्षा से पुनः यही प्रश्न उठता है कि जब प्रत्येक आत्मा (जीव) शुद्ध है, तो यह अशुद्धि कब से और किस कारण से प्रविष्ट हुई ? कब तक रहेगी? इसका समाधान कर्मविज्ञान ने इस प्रकार किया है कि निश्चयदृष्टि से तो प्रत्येक आत्मा अपने आप में सिद्ध-परमात्मा के समान शुद्ध है, परन्तु कर्मों का आवरण आ जाने के कारण संसारगत आत्माएँ अशुद्ध हैं, कर्मों का आवरण जैसे-जैसे हटता जाता है, वैसे-वैसे वह आत्मा उत्तरोत्तर शुद्ध होती जाती है। भगवान महावीर ने भी कहा कि “सिद्ध-परमात्मा और संसारी आत्मा में जो पृथक्ता (विभक्ति) है. वह कर्म के कारण है।" कर्म के कारण ही यह सब (नानाविशेषणयुक्त) उपाधि है, यानी ये पूर्वोक्त विभिन्नताएँ कर्मोपाधिक हैं और संसारी जीवों की आत्मा पर आया हुआ यह कर्मावरण ऐसा नहीं है, जो दूर न हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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