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*१२* कर्म सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु *
- हे गौतम! कर्म के कारण ही प्राणियों में विभेद होता है, अकर्म (कर्मरहितता) के कारण नहीं ।
संसारी प्राणियों की पूर्वोक्त विभिन्नताओं का कारण कर्म को मान लेने पर भी जैववैज्ञानिकों द्वारा कर्म को न मानकर वैयक्तिक विलक्षणताओं का कारण 'जीन्स' को माना जाता है। उनका कहना है कि व्यक्ति-व्यक्ति में पाई जाने वाली शारीरिक, मानसिक आदि विलक्षणताओं और विभिन्नताओं का आधार कर्म नहीं, आनुवंशिकता है, या परिवेश ( वातावरण Invironment) है। जीन ही माता-पिता के आनुवंशिक गुणों के संवाहक होते हैं। कतिपय मनोवैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि प्राणियों की शारीरिक-मानसिक विलक्षणताओं तथा वैयक्तिक विभिन्नताओं का कारण मौलिक प्रेरणाएँ (Primary Motives) हैं। किसी में कोई मुख्य प्रेरणा होती है, किसी में कोई दूसरी होती है। इसलिए 'जीन्स' आनुवंशिकता, परिवेश अथवा मौलिक प्रेरणाओं को ही प्राणियों में पाई जाने वाली शारीरिक, मानसिक विलक्षणताओं तथा विभिन्नताओं का कारण मानना चाहिए, कर्म को नहीं ।
इसका निराकरण करते हुए जैन - कर्मविज्ञानविदों ने कहा कि केवल इन्हें कारण मान लेने से पूर्णतया मनःसमाधान नहीं हो पाता। अन्ततोगत्वा यही प्रश्न उठता है कि अमुक-अमुक व्यक्तियों को ऐसी ही मौलिक प्रेरणा, आनुवंशिकता या जीवों की क्षमता में न्यूनाधिकता क्यों प्राप्त हुई ? तथा एक ही वंश-परम्परा में एक साथ होने वाले या एक ही माता के उदर से होने वाले बालकों की प्रकृति, रुवि, योग्यता और बौद्धिक क्षमता में अन्तर पाया जाता है; इतना ही नहीं, हम देखते हैं कि बहुधा संतति की योग्यता माता-पिता से अलग प्रकार की होती है। जो बलिष्ठता और वीरता महाराणा प्रताप में थी, वह उनके पूर्वजों या माता-पिता में नहीं थी। जो प्रखर बुद्धि ईश्वरचन्द्र विद्यासागर में थी, वह उनके पिता में नहीं थी । हेमचन्द्राचार्य की प्रतिभा के मुख्य कारण न तो उनके माता-पिता थे और न गुरु ही। ऐसे भी अनेक उदाहरण मिलते हैं कि माता-पिता शिक्षित और संस्कारी थे, जबकि उनका पुत्र निरक्षर भट्टाचार्य रहा । अतः इन सब विभिन्नताओं, विलक्षणताओं या विशेषताओं का कारण कथंचित् आनुवंशिकता, पारिवेशिकता या संयोग को मानने पर भी अन्ततोगत्वा ऐसी सुयोग - प्राप्ति का मूल कारण जन्म-जन्मान्तर संचित पूर्वकृत कर्म ही सिद्ध होता है।
कर्मविज्ञान जन्मान्तर अर्जित विलक्षणताओं की व्याख्या करता है।
प्राणियों की पूर्वोक्त विभिन्नताओं, मानसिक-बौद्धिक विलक्षणताओं तथा वैयक्तिक विशेषताओं एवं किसी-किसी मनुष्य में अभूतपूर्व क्षमताओं का मूल कारण पूर्वकृत कर्म क्यों है ? इसे प्रमाणित करने के लिए विभिन्न ऐतिहासिक, पौराणिक एवं आधुनिक उदाहरण दिये गए हैं। मानवेतर प्राणियों तथा वनस्पतियों में भी विलक्षणताओं के मूल कारण कर्म को सिद्ध करने के लिए भी कतिपय उदाहरण दिये गए हैं।
फिर जीन्स, आनुवंशिकता, पारिवेशिकता, ग्रन्थियों का स्राव आदि अथवा मनोविज्ञान, शरीरशास्त्र या जैवविज्ञान केवल इस जन्मगत और वह भी सिर्फ मानवों की विलक्षणताओं और विशेषताओं की व्याख्या करते हैं, जबकि कर्मविज्ञान जन्म-जन्मान्तर में अर्जित तथा इस जन्म में भी पूर्वकृत शुभ-अशुभ कर्मों के आधार पर मानवों तथा मानवेतर प्राणियों में पाई जाने वाली विलक्षणताओं. विभिन्नताओं आदि की व्याख्या करता है। इन सब युक्तियों और प्रमाणों के आधार पर निःसन्देह कहा जा सकता है कि संसारी जीवों की आत्मा के साथ जन्म-जन्मान्तर से कर्म का अस्तित्व सिद्ध है।
चार्वाक आदि नास्तिकों द्वारा कर्म के अस्तित्व पर प्रश्न-चिह्न
दूसरी ओर इसका प्रतिवाद करते हुए चार्वाक तथा कुछ वर्तमान युग के नास्तिकों ने कर्म के अस्तित्व पर प्रश्न-चिह्न लगा दिया है। उनका कहना है- “घट, पट आदि के समान कर्म नाम का कोई भी पदार्थ प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता । भूत, प्रेत आदि से आविष्ट व्यक्ति को जिस प्रकार उसकी चेष्टाओं पर से जान लिया जाता है कि यह भूतादि-ग्रस्त है, या यक्षाविष्ट है, उस प्रकार कर्मग्रस्त व्यक्ति की कोई ऐसी विलक्षण चेष्टा प्रतीत नहीं होती कि यह व्यक्ति कर्मग्रस्त है । इसलिए हमारा मानना है कि तन, मन, वाणी, इन्द्रिय आदि की सभी क्रियाएँ सहजरूप से होती रहती हैं। जब शरीर का अन्त हो जाता है, तब ये क्रियाएँ भी
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