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कमविज्ञान : भाग १ का सारांश
कर्म का अस्तित्व
यही कारण है कि कर्मविज्ञान के प्रथम भाग के प्रथम खण्ड में सर्वप्रथम कर्म के अस्तित्व को विविध प्रमाणों, युक्तियों, तर्कों तथा प्राणियों में पाई जाने वाली विविधताओं एवं विभिन्नताओं को लेकर सिद्ध किया गया है।
मनुष्य जब से आँखें खोलता है, उसके सामने चित्र-विचित्र प्राणियों से भरा संसार दिखाई पड़ता है। उन प्राणियों में कोई तो पृथ्वी के रूप में, कोई जलकाय के रूप में, कोई वायुकायिक रूप में, कोई तेजस्काय के रूप में और कोई विविध वनस्पतिकाय के रूप में दृष्टिगोचर होता है। कहीं लट, गिंडौला, अलसिया, जलौक इत्यादि द्वीन्द्रिय जीवों का समूह रेंगता हुआ नजर आता है। कहीं , चीचड़, खटमल, गजाई, चींटी, मकौड़ा, दीमक, धनेरिया इत्यादि के रूप में त्रीन्द्रिय जीवों का समूह चलता-फिरता नजर आता है। तो शयनकक्ष या भोजनकक्ष आदि में मक्खी. मच्छर, भौंरा, कंसारी, पतंगा, टिड्डीदल इत्यादि समूहरूप में उड़ते, फुदकते और सरकते दृष्टिगोचर होते हैं। इतना ही नहीं. ऊपर और नीचे. दाँये-बाँये दष्टिपात करते हैं तो कत्ता. बिल्ली. हाथी, घोड़ा, ऊँट, गाय, बैल आदि स्थलचर; मछली, मगरमच्छ, घड़ियाल आदि जलचर; कौआ, हंस, चील, कोयल इत्यादि नभचर; सर्प, गोह इत्यादि उरपरिसर्प तथा नेवला, चूहा, मेंढ़क, छछंदर इत्यादि भुजपरिसर्प पंचेन्द्रिय जीवों के रूप में यत्र-तत्र दिखाई देते हैं। यों एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों की अच्छी खासी हलचल दिखाई देती हैं। इनकी आकृति, प्रकृति, रूप, रंग, चालढाल, आवाज आदि एक-दूसरे से बिलकुल भिन्न प्रतीत होती हैं। इतना ही नहीं, मनुष्य जाति में भी गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेदत्रय (काम). कषाय, ज्ञान-अज्ञान, भव्य-अभव्य, संयम-असंयम, संज्ञी-असंज्ञी अथवा संज्ञा, आहार, दर्शन-अदर्शन, लेश्या, सम्यक्त्व-मिथ्यात्व आदि बातों (मार्गणाओं) को लेकर अनेक विभिन्नताएँ हैं। इसके अतिरिक्त पारिवारिक. सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, नैतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, धर्मसंघीय आदि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में भी रुचि, जिज्ञासा, प्रतिभा, योग्यता, क्षमता, बुद्धि, शक्ति आदि की दृष्टि से मनुष्यों में परस्पर भिन्नता एवं विलक्षणता पाई जाती है। फिर पंचेन्द्रियों में मनुष्यों और तिर्यञ्चों के अतिरिक्त नारक और देव भी हैं, जो भले ही इन चर्मचक्षुओं से दिखाई न दें, परन्तु अतीन्द्रिय ज्ञानियों को दिव्यनेत्रों से वे प्रत्यक्षवत् दृष्टिगोचर होते हैं। इस प्रकार संसारी जीवों का विशाल और अगणित-अनन्त प्रकार की विविधताओं से भरा यह मेला संसार में दृष्टिगोचर होता है। यह तो नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव, इन चार गतियों वाले संसार में विविधताओं, विभिन्नताओं और प्रतिप्राणि की पृथक्ता से भरे जीवों का लेखा-जोखा है। सिद्ध-मुक्त जीवों में विभिन्नताएँ-विविधताएँ नहीं ___ संसार से सर्वथा निर्लिप।, निरंजन, निराकार, कर्म, काया, मोह-माया आदि सबसे रहित जन्म-मरण, दुःख-कर्म-शरीरादि से रहित सिद्ध-बुद्ध-मुक्त अनन्त जीव तो इन सबसे पृथक् हैं, उनमें प्रति व्यक्ति आत्म-पृथक्ता तो है, किन्तु संसारी जीवों की तरह विविधता या विभिन्नता नहीं है। संसारी जीवों में असंख्य विभिन्नताओं का क्या कारण है ?
प्रश्न होता है-संसारी जीवों में जिस प्रकार अगणित विभिन्नताएँ-विविधताएँ हैं, वैसी विविधताएँविभिन्नताएँ उन अनन्त सिद्ध-मुक्त जीवों में क्यों नहीं हैं ? संसारी जीवों में इतनी विविधताओं-विभिन्नताओं का क्या कारण है ? इसका स्पष्ट समाधान भगवान महावीर ने इस प्रकार किया है
“गोयमा ! कम्मओ णं विभत्तीभावं जणयइ, नो अकम्मओ।"
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