Book Title: Karm Prakruti Part 01
Author(s): Shivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ इस अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव हुए, जो कि समग्र मानव जाति में दिव्य पुरुष के रूप में प्रख्यात हुए थे। जिनका उल्लेख वेदों और उपनिषदों में भी हुआ है। पाश्चात्य देशों में इन्हें 'बाबा आदम' के नाम से आज भी संबोधित किया जाता है । उन्हें जिनदेव या वीतरागदेव भी कहा जाता है। इन वीतराग देवों ने समग्र विश्व के रहस्य को प्रतिपादित किया, किन्तु इस रहस्य को समझने वाली प्रज्ञा विरल ही रही। अधिकांश मानव समुदाय बौद्धिक विकास की कमी के कारण इन तथ्यों को समझने में प्रायः अक्षम रहा। प्रभु ऋषभदेव ने आध्यात्मिक शासन को जिस वर्ग से विशेष रूप से संबंधित किया, इस वर्गविशेष को तीर्थ के नाम से संबोधित किया गया। इसी तीर्थ का वर्गीकरण चार विभागों में किया गया, यथा--साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका । चारों वर्ग गुण एवं कर्म की निष्पन्नता के साथ विश्व के सामने आये। तीर्थंकर देवों पर परिपूर्ण श्रद्धा रखने वाले ऐसे वर्गों ने अपने सभी दुःखों की समाप्ति के लिये यथाशक्ति प्रयत्न किया। कुछ साधक तो परिपूर्णता को प्राप्त कर आन्तरिक शक्तियों से परिपूर्ण हो ईश्वर बन गये और कुछ पुण्यकर्म के संयोग से देवलोकादि को प्राप्त हुए हो, कालान्तर में पुनः वैसी ही शक्ति को लिये हुए दूसरे तीर्थंकर हुए। वे पूर्व तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का अध्ययन किये बिना ही स्वतः साधना के क्षेत्र में उतरे और पूर्व तीर्थंकर की तरह शरीर को प्रयोगशाला बनाकर उन्होंने आध्यात्मिक सिद्धि में परिपूर्णता प्राप्त की एवं विराट विश्व के रहस्य को इसी रूप में जाना, देखा एवं प्रतिपादित किया। इस प्रकार एक के बाद एक २४ तीर्थकर हुए। इनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों में मूलत: कोई अन्तर नहीं था। परन्तु समय-समय पर सभी ने स्वयं के परिपूर्ण ज्ञानालोक में जो देखा, वही प्रतिपादन किया। चतुर्विध संघ की स्थापना की। ____इन परिपूर्ण अवस्थाओं को वरने वाले एवं तदनुरूप कथन करने वाले एक के बाद एक तीर्थंकर होते रहने से उनके अनुयायी वर्ग में मौलिक तत्त्वों में प्रायः एकरूपता रही और वह अद्यावधि तक चली आ रही है। परन्तु जिन मानवों का प्रारंभ में तो ध्यान ऋषभदेव के सन्मुख रहा परन्तु तत्त्वों की गहनता इनकी समझ से परे रही, उन मानवों के बीच सिद्धान्तों का सही सम्बन्ध यथावत् नहीं रह सका । तब उन्होंने नाममात्र की स्थिति को लेकर अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार सिद्धान्तों का निर्माण कर दिया। यही कारण है कि समग्र मानव जाति के साथ ऋषभदेव भगवान् का सम्बन्ध तो किसी-न-किसी रूप में जुड़ा हुआ है, परन्तु सृष्टि के रहस्य सम्बन्धी कारण एवं सिद्धान्तों में एकरूपता नहीं रह सकी। ऋषभदेव के पश्चात् आने वाले अन्य तीर्थंकरों के साथ भी क्षेत्रीय परिधि के कारण सम्बन्ध नहीं जुड़ सका तथा जिनके क्षेत्रीय परिधि नहीं थी,तथापि वे परिपूर्णतः पूर्वाग्रह से मुक्त नहीं बन सके। जिन बुद्धिवादियों ने जो संस्कार जनसाधारण को दिये थे, इन संस्कारों में वह सिद्धान्त रूढ़-सा बन गया और इसी रूढ़ता के कारण वे एक क्षेत्र में विचरण करने वाले तीर्थंकरों की समीपता भी नहीं पा सके। अतः संस्कारों का परिवर्तन, परिमार्जन नहीं हो सका। इसलिये इस विराट विश्व की रहस्यमयी पहेली का कारण उनसे अज्ञात ही रहा। परन्तु मानव की बुद्धि ने कभी विराम नहीं लिया। विचित्र दृश्यों की खोज में विभिन्न कारण ढुंढती ही रही। इसीलिये विश्व में जितने भी मत, पंथ विद्यमान हैं वे सृष्टि के विषय में एवं उसके हेतु में विभिन्न कल्पनाएं करते रहे हैं। जब वैदिक युग आया, तब वैदिक ऋषि, महर्षियों ने ऋषभदेव के गुणगान तो किये हैं।' परन्तु १ ॐ नमो अर्हन्तो ऋषभो.... (यजुर्वेद) ॐ रक्ष रक्ष अरिष्टनेमि स्वाह . . . . (, अ. २६) ॐ त्रैलोक्य प्रतिष्ठितानां चतुर्विशति तीर्थंकराणां ऋषभादि वर्द्धमानान्तानां, सिद्धान्तशरणं प्रपद्यो... (ऋग्वेद) तीन लोक के प्रतिष्ठाता ऋषभदेव से लेकर श्री वर्धमान स्वामी तक चौबीस तीर्थंकरों की शरण प्राप्त हो । मरुदेवी च नाभिश्च भरते: कल सत्तम । अष्टभी मरुदेव्या तु नाभेजति उरूकमः ।। . दर्शयन् वर्त्म वीराणं सुरासुर नमस्कृतः । नो कि त्रितयकर्ता यो युगादौ प्रथमो जिनः ।। (मनुस्मृति) अयमवतारो रजसोपप्युत कैवल्योपशिक्षणार्थ (श्रीमद् भागवत) ऋषभ का अवतार रजोगुण व्याप्त मनुष्यों को मोक्षमार्ग की शिक्षा देने के लिए हआ। दर्शयन् वर्त्म वीराणं सुरासुर नमक्षणार्थ (श्रीमद् भागवत)मा देने के लिए हुआ ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 362