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सरस्वती की साधना
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नहीं है। तेरी भक्ति और ध्यान से मैं देवी सरस्वती तेरे ऊपर प्रसन्न हुई हूँ ! मेरे प्रसाद से तू 'सिद्ध-सारस्वत' होगा ।'
इतना कहकर देवी सरस्वती तत्काल अदृश्य हो गई। जिनालय में खुशबू का कारवाँ उतर आया ।
सोमचन्द्र मुनि के चेहरे पर तेज झिलमिलाने लगा । उनकी प्रज्ञा तत्काल शतदल कमल की भाँति विकसित हो उठी।
उनके श्रीमुख से सरस्वती की स्तुति का प्रवाह बरसाती नदी की भाँति अनवरत-अथक बहने लगा। उनका हर्ष उछल रहा था... उनका रोंया-रोंया उल्लास से पुलक रहा था। कब सबेरा हो गया... उन्हें मालूम ही नहीं रहा । उन्होंने भगवान नेमनाथ की स्तवना की ।
वे धर्मशाला में लौटे। साथी मुनिवर से कहा :
'मुनिवर, हमें वापस गुरुदेव के पास जाना है । जिस कार्य के लिए कश्मीर जाने का था... वह कार्य यहीं पर पिछली रात में सिद्ध हो गया है ! '
दोनों मुनिराज पूज्य गुरुदेव के पास पहुँच गये। गुरुदेव ने सोमचन्द्र मुनि के चेहरे पर अपूर्व परिवर्तन देखा। दिव्य तेज देखा । गुरुदेव प्रसन्न हो उठे । सोमचन्द्र मुनि ने गुरुदेव के चरणों में वंदना करके रात की सारी घटना विदित की।
गुरुदेव ने सोमचन्द्र मुनि को वात्सल्य से अभिषिक्त किया... जी भरकर उनकी प्रशंसा की। गुणवान शिष्य की प्रशंसा तो गुरुजन भी करते हैं ।
गुरुदेव ने कहा : 'वत्स, श्रुतदेवी सरस्वती की अद्भुत कृपा तुझे प्राप्त हुई है...! तेरा महान् सद्भाग्य उदित हुआ है । अब तू दुनिया के किसी भी विषय पर लिख सकेगा... बोल सकेगा... औरों को अच्छी तरह समझा सकेगा। तेरी वाणी प्रभावशाली बनेगी । राजा-महाराजा को प्रतिबोधित करके उन्हें मोक्षमार्ग का आराधक बना सकेगा ।
'गुरुदेव, आप की ही कृपा से मुझे यह सिद्धि प्राप्त हुई है।' सोमचन्द्र मुनि ने विनम्र शब्दों में कहा ।
‘सोमचन्द्र, एक ही रात की आराधना - उपासना से श्रुतदेवी सरस्वती प्रसन्न हो जाए... ऐसा मेरे ध्यान में आज तक एक भी प्रसंग नहीं है... तेरा यह प्रकर्ष पुण्य है कि तुझे अल्प प्रयास में ऐसी शक्ति - सिद्धि प्राप्त हो गई है!'
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