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बादशाह का अपहरण
१२३ मुहम्मद के पास शस्त्र नहीं था। न उसका एक भी नौकर या सैनिक उसके पास था... वह असहाय था। उसने करुणामूर्ति गुरुदेव की ओर देखा। उनके चरणों में मुहम्मद ढेर हो गया... गद्गद् स्वर में बोला : ___'या खुदा... मेरी बड़ी गलती हो गई... मेरा जान बख्श दीजिए, मैं आपका शुक्रगुजार रहूँगा। रहम कीजिए, ओ परवरदिगार ।'
गुरुदेव ने कहा : 'बादशाह, तूने पहाड़ सी गलती की है। तुझे कुमारपाल की अतुल ताकत का अंदाजा नहीं है।'
बादशाह बोला : 'मेरे खुदा । मैं कबूल करता हूँ... मेरी गलती! मैंने बहुत भारी गुस्ताखी की है! जिसके सर पर आप जैसे खुदा के नूर का हाथ हो... उसे मुझ-सा मामूली इन्सान कैसे जीत सकता है?'
कुमारपाल ने कहा : 'क्या तूने मेरी प्रचंड सेना का अपूर्व पराक्रम सुना नहीं था। मेरा युद्ध कौशल्य तेरे कानों तक नहीं पहुंचा था क्या?' __ 'जानता था... सम्राट... पर! तुम चातुर्मास में युद्ध नहीं करने की प्रतिज्ञा किये हो, यह जानकर... मैं चढ़ आया। बिना लड़ाई के गुजरात का वैभवी
और समृद्ध राज्य हड़प कर जाने के लालच ने मुझ पर जनून सवार कर दिया था। मुझे माफ कर दीजिए... राजेश्वर! और मुझे अपनी छावनी में वापस भिजवा दीजिए। मेरे सैनिक यदि मुझे और मेरे पलंग को नहीं देखेंगे... वे चिंता के मारे मूढ़ हो जाएंगे।'
कुमारपाल दहाड़ा : 'अरे दुष्ट... क्या मैं तुझे यहाँ से ऐसे ही... जिन्दे जाने दूंगा? तेरे जैसे दुर्जन और नापाक आदमी पर भरोसा करना भी पाप है। अपराधी को सजा मिलनी ही चाहिए। मैं तेरा सीना चीरकर रख दूँगा।' कुमारपाल बादशाह की ओर लपके।
गुरुदेव बोल उठे : 'कुमारपाल, बादशाह ने तेरी शरण ग्रहण की है। तेरे साथ वह दोस्ती करना चाहता है। उसकी हत्या नहीं हो सकती। मैं उसे अभयवचन दे रहा
कुमारपाल ने कहा :
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