Book Title: Kalikal Sarvagya
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 142
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपूर्व साधर्मिक उद्धार १३२ राजाओं को पाटन में बुलवाया था। आसपास के गाँव-नगर के श्रेष्ठिओं को भी गुरुदेव के प्रवेश उत्सव में भाग लेने के लिए निमंत्रित किया गया था। सभी तैयारियाँ हो चुकी थी। गुरुदेव, पाटन के निकट के गाँव में पहुंच चुके थे। दूसरे दिन पाटन में प्रवेश करना था। राजा कुमारपाल, अन्य राजाओं के साथ रथ जोड़कर गुरुदेव को वंदन करने के लिए पास के उस गाँव की ओर चले। ० ० ० एक वृद्ध माँजी ने उपाश्रय में प्रवेश किया। उसकी इच्छा गुरुदेव के दर्शन करने की थी। और गुरुदेव को वस्त्र अर्पण करने की भावना थी। उसने गुरुदेव को वंदना की । गुरुदेव ने उसे 'धर्मलाभ' के आशीर्वाद दिये। 'गुरुदेव, यह वस्त्र मैंने स्वयं अपने हाथ से बुना है... मुझे आपको यह वस्त्र अर्पित करना है। मेरी हार्दिक इच्छा है कि आप स्वयं इस वस्त्र का उपयोग करें।' वृद्धा के शरीर पर के कपड़े उसकी गरीबी को व्यक्त कर रहे थे। उसके ललाट पर केसर का तिलक था। यानी कि वह जैन थी यह स्पष्ट बात थी। गुरुदेव ने उस वस्त्र को स्वीकार किया। वृद्धा बड़ी खुश हुई। गुरुदेव की प्रशंसा करती हुई अपने घर पर गई। गुरुदेव ने वही मोटा और खुरदरा वस्त्र अपने शरीर पर ओढ़ लिया। 'मत्थएण वंदामि' कहते हुए राजा कुमारपाल ने उपाश्रय में प्रवेश किया। उनके कदमों को नापते हुए अन्य राजा भी उपाश्रय में प्रविष्ट हुए। कुमारपाल ने गुरूदेव को विधिपूर्वक वंदना की। साथ में रहे हुए राजाओं ने उनका अनुसरण किया। राजाओं ने गुरुदेव की कुशल पृच्छा की। गुरुदेव ने प्रसन्न मन से कहा : 'देव-गुरू की कृपा से कुशलता है।' 'सभी राजा विनयपूर्वक गुरुदेव के सामने बैठे। गुरुदेव के साथ वार्तालाप करने लगे। कुमारपाल की निगाहें यकायक गुरुदेव के शरीर पर गई। खुरदरी और मोटी खद्दर की चादर अपने गुरुदेव के शरीर पर देखकर उनके मन में ग्लानि हो आयी। For Private And Personal Use Only

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