Book Title: Kalikal Sarvagya
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

View full book text
Previous | Next

Page 153
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाँच प्रसंग १४३ 'अरे पागल ब्राह्मण! तू सीधा पाटन जा और हेमचन्द्रसूरिजी की सेवा कर | उन्हें प्रसन्न कर | वे प्रसन्न हो जाएंगे तो तुझे वापस इस मंदिर में स्थान मिल जाएगा। बृहस्पति पाटन आया। उसने उपाश्रय में जाकर गुरुदेव को प्रणाम किया। 'गुरुदेव, मैं आपके चरणों की सेवा करने के लिए आया हूँ।' बृहस्पति तपस्वी तो था ही। उसने चार महीने तपश्चर्या की। गुरुदेव की सेवा की। गुरुदेव उसे जान गये थे। राजा भी समझ गये थे कि 'यह ब्राह्मण क्यों इस तरह तप और सेवा की धूनी रचाकर बैठा है।' बृहस्पति ने जैन धर्म के विधि-विधान सीख लिए | मंदिर की पूरी पूजा विधि जान ली। गुरु को वंदना करने की रीत सीख ली। और पच्चक्खाण की विधि भी सीख ली। बातों-बातों में चार महीने व्यतीत हो गये। बृहस्पति ने गुरुदेव को विधिपूर्वक वंदना कर के कहा : "गुरुदेव, आपकी कृपा से मेरा चार महीने का तप निर्विघ्न पूर्ण हुआ है। आज मुझे पारना करने का पच्चक्खाण दीजिए एवं आशीर्वाद दीजिए।' गुरूदेव के चेहरे पर संतुष्टि और प्रसन्नता के फूल खिल उठे। उसी वक्त महाराजा कुमारपाल भी उपाश्रय में आ पहुँचे। गुरुदेव को बृहस्पति पर प्रसन्न हुआ देखकर उन्होंने बृहस्पति से कहा : __'तपस्वी ब्राह्मण, तू सोमनाथ पाटन जा। पहले की तरह मैं तेरी वहाँ के मंदिर के पुजारी पद पर स्थापना करता हूँ।' बृहस्पति प्रसन्न हो उठा। उसकी तपश्चर्या फलवती सिद्ध हुई थी। वह हेमचन्द्रसूरिजी का भक्त हो गया। सोमनाथ पाटन के 'कुमार विहार' नामक जिनमंदिर में रहते हुए उसने बरसों तक परमात्मा जिनेश्वर भगवान की भक्तिभाव पूर्वक पूजा की। सेवा एवं उपासना की। ० ० ० For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171