Book Title: Kalikal Sarvagya
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 157
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाँच प्रसंग १४७ ___ 'महाराजा, विश्वामित्र, पराशर जैसे ऋषि-मुनि कि जो जंगल में रहते हुए पेड़ के पत्ते और छिलके खाते थे... वे भी अप्सराओं के खूबसूरत शरीर को देखकर तप-जप सब भूल गये थे... सुध-बुध गवाँ बैठे थे... फिर जो साधु दूधदही-घी वगैरह खाते हैं... और गाँव नगर में लोगों के बीच रहते हैं... वे इन्द्रिय निग्रह कैसे कर सकते हैं?' इस बात का जवाब आचार्य महाराज ने बड़े ही सटीक ढंग से दिया : 'अरे पुरोहित! हाथी और शूकर का मांस खाने वाला हट्टा-कट्टा सिंह साल में एक बार ही सिंहनी का संग करता है... जबकि जुवार-बाजरी के दाने खाने वाले कबूतर रोजाना सुखभोग करते हैं... इसका क्या कारण है? तनिक हमें भी समझाइये जरा।' पुरोहित आमित्र बेचारा क्या जवाब देता? वह तो काठ के पुतले सा चुप हो गया। मारे शरम से उसका सिर नीचा हो गया। ० ० ० राजसभा में इर्ष्या से जलनेवालों की कमी नहीं थी। एक राजपुरुष ने कुमारपाल के कानों में जहर डालते हुए कहा : 'महाराजा, ये जैन लोग सूर्य की पूजा नहीं करते। ये लोग सूर्य को मानते ही नहीं हैं... जबकि सूर्यभगवान तो सभी के मान्य देवता हैं... धरती को धनधान्य और जीवन देनेवाले हैं...' महाराजा ने हेमचन्द्रसूरिजी के सामने देखते हुए कहा : 'गुरुदेव, क्या जैन लोग सूर्यपूजा नहीं करते हैं?' 'राजन्, सूर्य तो रोशनी का मूल स्रोत है... हम तो सूर्य के परम उपासक हैं । सूर्य को हृदय में रखते हैं... आपको तो शायद मालूम ही होगा कि सूर्य के अस्त हो जाने पर हम भोजन का त्याग कर देते हैं... अरे । सूर्यभगवान की गैरमौजूदगी में हम पानी की बूंद भी मुँह में नहीं डालते।' महाराजा ने उस इर्ष्यालु के सामने देखते हुए कहा : 'क्यों रे बेवकूफ। है तेरे पास इस बात का जवाब? या फिर गुरुदेव से जलना ही सीखा है?' उस बेचारे का तो चेहरा ही उतर गया | उसके पास चुप रहने के अलावा अन्य चारा ही नहीं था। For Private And Personal Use Only

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