Book Title: Kalikal Sarvagya
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 143
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपूर्व साधर्मिक उद्धार १३३ ___ 'गुरुदेव के शरीर पर इतना मोटा और खुरदरा कपड़ा देखकर ये राजा लोग क्या सोच रहे होंगे? सभी राजा जानते हैं कि : ये मेरे गुरूदेव हैं । शायद उन्हें यह मालूम नहीं होगा कि गुरुदेव राजा के घर की भिक्षा, भोजन, कपड़ेपात्र वगैरह कुछ नहीं लेते। वे सोच रहे होंगे गुजरात के इतने बड़े राजा गुरुदेव को अच्छा कपड़ा भी नहीं दे सकते क्या?' कुमारपाल का मन बेचैन हो गया। गुरुदेव को खयाल तो आ ही गया। कुमारपाल ने राजाओं से कहा : 'चलो, अब हम चलें। गुरूदेव का भिक्षा का समय हो गया है। राजाओं ने पुनः गुरुदेव को भावपूर्वक वंदना की। उपाश्रय के बाहर निकल कर रथ में बैठे। कुमारपाल उपाश्रय में खड़े रहे थे। वे गुरुदेव के पास बैठे और विनम्र शब्दों में अपने मन की बात व्यक्त की। __ 'गुरुदेव, यह वस्त्र आपके शरीर पर अच्छा नहीं लगता। गुजरात के जैनों के पास अच्छे वस्त्र नहीं हैं क्या? कि वे आपको इतने मोटे खुरदरे वस्त्र अर्पण करते हैं?' गुरुदेव ने कहा : 'राजन, तुमने कभी अपने हजारों...लाखों...साधार्मिक भाई-बहनों की सार -सम्हाल ली सही? तुम्हारे साधर्मिक कैसे मकान में रहते हैं? कैसे खाना खाते हैं? कैसे कपड़े पहनते हैं? वगैरह जानने की कोशिश की है सही? सुखी और समृद्ध श्रावकों को अपने साधर्मिक भाई-बहनों का खयाल करना ही चाहिए। दुःखी लोगों के दुःख मिटाने चाहिए। तुम्हें कहाँ पता है... ये वस्त्र मुझे अर्पण करनेवाली उस वृद्धा श्राविका के शरीर पर गरीबी का करुण काव्य रचा हुआ था।' कुमारपाल की आँखें गीली हो उठीं। गद्-गद् स्वर में उन्होंने कहा : 'गुरुदेव, आपने मेरे ऊपर उपकार करके मुझे कर्तव्य की ओर प्रेरित किया है। मैंने मंदिर बनवाये... ज्ञानभण्डार बनवाये...जीवदया के लिए काफी कुछ किया परन्तु इस कार्य के प्रति लापरवाह रहा। आपने तो अपने उपदेश में कईबार साधर्मिकों के उद्धार के लिए प्रेरणा दी है।' For Private And Personal Use Only

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