Book Title: Kalikal Sarvagya
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

View full book text
Previous | Next

Page 138
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्मश्रद्धा के चमत्कार १२८ कुमारपाल ने कहा : 'जब तक कागज न आये तब तक मैं उपवास करूँगा।' गुरुदेव ... अन्य मुनि... आलेखक... व्यवस्थापक... सभी 'नहीं... नहीं...' करते रहे, पर राजा ने प्रतिज्ञा ले ही ली । कुमारपाल की श्रुतभक्ति पर गुरुदेव का मन प्रसन्न हो उठा । आलेखक भी कुमारपाल की ज्ञानरुचि देखकर दंग रह गये । कुमारपाल अपने राजमहल पर आये । उनके मन में विचार आया : 'मुझे कश्मीर के तालपत्र पर ही आधार क्यों रखना चाहिए? क्या यहाँ पाटन में तालपत्र नहीं मिल सकते?' उन्होंने अपने बगीचे के माली को बुलाया । उससे पूछा : ‘माली, यहाँ अपने बगीचे में तालवृक्ष है क्या?' 'महाराजा, तालवृक्ष तो हैं... पर उनके पत्ते इतने अच्छे और साफ सुथरे नहीं होते है ।' ‘यानी?' 'महाराजा, उन वृक्षों के तालपत्र काम में नहीं आ सकते।' 'ठीक है... तू जा सकता है।' 'माली चला गया । कुमारपाल का मन गहरे सोच में डूब गया । क्या उन तालपत्रों को अच्छा नहीं बनाया जा सकता? नये तालवृक्ष लगाये जाएँ तो उन्हें तैयार होने में बरसों बीत जाएँगे । नहीं-नहीं... इन्हीं तालवृक्षों के तालपत्रों को सुधारना चाहिए । वृक्षों के भी अधिष्ठायक देव होते हैं। मैंने सुना है कि कुछ एक वृक्षों पर देवों का, व्यंतर देवों का निवास होता है। उन्हें यदि प्रसन्न किया जाए तो? - मेरी भावना विशुद्ध है । - मुझे तो धर्मग्रन्थ लिखवाने हैं । मेरा मन साफ है... पवित्र है... निर्मल है... मुझे मेरे परमात्मा पर... मेरे गुरुदेव पर... पूर्ण श्रद्धा है... मेरी श्रद्धा पर देवों को प्रसन्न होना ही होगा । मैं बाग में जाऊँ और वृक्ष देवता को प्रसन्न करूँ ।' For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171