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बादशाह का अपहरण
१२१ 'जी हाँ, आपकी बात सच है, मेरे लिए तो 'एक ओर नदी और दूसरी ओर बाघ वाली' कहावत चरितार्थ हुई है।'
राजा ने सारी बात कही। गुरुदेव ने आँखें मूंदकर शांति से सारी बात
सुनी।
बात पूरी हुई। गुरुदेव ने आँखे खोली... राजा के सामने देखा। 'राजन्, चिन्ता छोड़ दीजिए। तुम्हारे दिल में धर्म का वास है तो वह धर्म ही तुम्हारी रक्षा करेगा। तुम्हारे गुजरात की सुरक्षा करेगा। हाँ, तुम्हे एक काम करना होगा।' 'भगवन्, आपकी जो आज्ञा हो, वह मुझे शिरोधार्य है।' 'आज रात को यहाँ मेरे पास रहना है।' 'जी, गुरुदेव | जैसी आपकी आज्ञा ।'
राजा ने गुरुदेव के चरणों में वंदना की। वे चिन्तामुक्त हो गये। उन्हें गुरुदेव पर अपार श्रद्धा थी। निश्चिंत होकर वे अपने महल पर लौटे।
पाटन के जिस उपाश्रय में गुरुदेव बिराजमान थे, उस उपाश्रय के बीचोंबीच एक बड़ा खुला चौक था। ऊपर आकाश... नीचे धरती। छत वगैरह नहीं थी उसके ऊपर।
निश्चित समय पर रात में राजा कुमारपाल उपाश्रय में आ पहुंचे। उपाश्रय के चौक के पास ही कुमारपाल गुरुदेव के सामने बैठ गये। गुरुदेव उत्तरदिशा की ओर ध्यान लगाकर बैठे हुए थे। पद्मासनस्थ होकर वे गहरे ध्यान में निमग्न हो गये थे। कुमारपाल की दृष्टि गुरुदेव पर ठहरती, कभी आकाश में चली जाती। चाँदनी रात थी... आकाश में कहीं भी बादलों का नामोनिशां नहीं था। __ दस मिनट... बीस मिनट... ३० मिनट... और आकाश में एक सुन्दर पलंग दिखायी दिया। पलंग धीरे-धीरे उपाश्रय के ऊपर आया। राजा तो मारे आश्चर्य से भौंचक्का रह गया। उनकी आँखें विस्फारित हो उठीं। पलंग धीरेधीरे उपाश्रय के चौक में उतरा। राजा खड़े हो गये।
पलंग भी बड़ा ही कीमती और सुन्दर था। पलंग में एक सशक्त पुरुष सोया हुआ था। उसके गले में रत्नों का हार था।
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