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कुमारपाल का राज्याभिषेक
राजा ने गुरुदेव को अति हर्ष के साथ प्रणाम किये। उन्हें सम्मानपूर्वक राजसभा में लाकर, अपने सुवर्णासन पर आसीन किया।
गुरुदेव ने राजा को आशीर्वाद दिया : 'राजन्, ज्ञानरूप, अगोचर, अतुलनीय और अप्रतिम तेज तेरे मोह को प्रशांत करनेवाला हो!'
राजा ने आशीर्वाद ग्रहण किये। अपने अपराध के बोझ से शरम महसूस करता हुआ राजा बोला :
'भगवन्, मैं कृतघ्न हूँ। मैं आपको मेरा मुँह दिखाने लायक भी नहीं रहा। खंभात में जब सैनिक मुझे पकड़ने के लिए आये तब आप ही ने मेरी रक्षा की थी... अपने प्राणों की परवाह किये बगैर! आप ही ने मुझे घोर निराशा में से खींच कर बाहर निकाला था... और लिखकर दिया था कि इस दिन... इस वार को मेरा राज्याभिषेक होगा।
आपके कथनानुसार जब मुझे राज्य प्राप्ति हुई तब आपके उपकारों का बदला चुकाने की बात तो दूर रही... मैंने आपको याद भी नहीं किया! पहले के आपके अनेक उपकारों का ऋण अभी मैंने चुकाया नहीं है कि आपने एक और महान उपकार मुझ पर किया। प्राणदान देकर मुझे उपकारों के भारी पर्वत तले दबा दिया है! मेरे ऊपर आपका ऋण बढ़ता ही जा रहा है... न जाने कब मैं आप के ऋण से मुक्त हो पाऊँगा?
भगवंत! उपकार करना... यही आपका स्वभाव है। अन्यथा मुझ जैसे कृतघ्नी आदमी पर आज फिर प्राणदान देने का उपकार आप कैसे करते?
कृतज्ञ आदमी से ऊँचा कोई आदमी नहीं। कृतघ्न आदमी से नीच कोई आदमी नहीं!
इसीलिए तो दुनिया में कृतज्ञ आदमी की सब प्रशंसा करते हैं और कृतघ्न को सब बुरा कहते हैं।
ओ प्रभु! आप कृतज्ञता की चोटी पर बिराजमान हो जब कि मैं कृतघ्नता की खाई में गिर पड़ा हूँ। ___ आप क्षमाधन हैं! आप मेरे तमाम अपराधों को क्षमा करें। मेरी आपसे यही प्रार्थना है कि आप यह पूरा राज्य स्वीकार कीजिए... सारी राज्यसंपत्ति का उपभोग करें... और मुझे कृतार्थ करें!'
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