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सोमनाथ महादेव प्रगट हुए
६६ शीघ्र ही गुरुदेव ने कहा : 'राजन्, तीर्थयात्रा तो हमारा धर्म ही है। वही तो हमारा कर्तव्य है। तीर्थयात्रा के लिए हम साधुओं को प्रार्थना करने की आवश्यकता ही नहीं होती!'
राजा हर्षित हुआ। वह राजमहल में गया। उसने मन में निश्चय किया... कल राजसभा में उस पुरोहित को मुँह की खानी पड़ेगी!'
अगले दिन राजसभा का आयोजन हुआ। राजा कुमारपाल राजसिंहासन पर आकर बैठे | गुरुदेव भी राजसभा में पधार गये थे।
राजसभा की कार्यवाही प्रारम्भ हुई। राजपुरोहित बार-बार राजा की ओर देख रहा था। राजा उसकी ओर देखना टाल रहा था।
राजसभा का कार्य पूरा हुआ । राजा ने खड़े होकर आचार्यदेव से प्रार्थना की
"गुरुदेव, सोमनाथ का मंदिर नया बन गया है... मेरी इच्छा यात्रा करने की है। मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप भी यात्रा में साथ पधारिये।' । _ 'अवश्य... अवश्य... राजन्! तीर्थयात्रा तो हमारा धर्म है... हम जरूर आयेंगे!
राजा ने उस इर्ष्यालु पुरोहित की ओर तीक्ष्ण निगाहों से देखा... वह इतना सकपका गया था... कि नजर ऊँची करके देखने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। वह पैरों से धरती को घिस रहा था। गुरुदेव समझ गये कि यह सारी आग इस पुरोहित की लगाई हुई है! उन्होंने राजा से कहा :
'हम कल ही सौराष्ट्र की ओर विहार करेंगे। शत्रुजय-गिरनार की यात्रा करके देवपत्तन में तुम्हें मिल जाएंगे।
कुमारपाल ने कहा : 'गुरुदेव, यात्रा के लिए सुन्दर-सुविधा संपन्न रथ उपाश्रय में भिजवा दूँ?'
गुरुदेव मुस्कुरा उठे : 'राजेश्वर, हम साधु लोग हमेशा पैदल ही चलते हैं! हम वाहन में नहीं बैठ सकते। पदयात्रा ही हमारा आचार है।'
राजा बहुत आनंदित हुआ।
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