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देवबोधि की पराजय
यों कहकर पूर्वज भी हवा में गायब हो गये! कमरे में रहे केवल राजा...मंत्री और गुरुदेव! राजा कुमारपाल गहरे सोच में डूब गया है। 'ब्रह्मा-विष्णु और महेश ने अलग बात कही। इन तीर्थंकरों ने दूसरी बात कही! और पूर्वजों ने देवबोधि की उपस्थिति में क्या कहा और यहाँ पर एकदम उल्टी बात कही! क्या सच और क्या झूठ?'
दोनों तरफ से परस्पर विपरीत मंतव्यों से राजा की बुद्धि उलझ गई! उसने आचार्यदेव के सामने देखा... आचार्यदेव धीरे से मुस्कुरा रहे थे। राजा ने पूछा : 'यह सब क्या हो रहा है गुरुदेव? मैं किसे मानूँ? क्या मानूं?' गुरुदेव ने पूछा : 'देवबोधि ने जो दिखाया... वह क्या लगा तुम्हें?' राजा बोला : 'मैं न तो उसे समझ पाया हूँ... न इसे समझ पा रहा हूँ।' गुरुदेव ने कहा : 'राजन् । यह सब इन्द्रजाल है! देवबोधि के पास वैसी एक ही कला है...मेरे पास ऐसी सात कलाएँ है! हम दोनों ने तुम्हें जो कुछ दिखाया... वह सपना है... जादूगरी है... मायाजाल है!'
और, यदि तुम्हें इन बातों पर भरोसा नहीं होता हो... यहीं पर मैं तुम्हें समूचा विश्व दिखा सकता हूँ! देखना है? परन्तु वह सब नाटक की आवश्यकता नहीं है। सच तो, पहले जो सोमनाथ ने तुम्हें कहा वही है!'
राजा का मन आश्वस्त हुआ | उसने भावपूर्वक गुरुदेव को वंदना की और कहा : 'गुरुदेव, भ्रमणा के जाल में से बाहर निकालने का एक ओर भारी उपकार आपने मुझ पर किया!!
राजा राजमहल को लौट गया।
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