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काशीदेश में अहिंसा-प्रचार
'अरे...एक क्या... अनेक नँए मारूँगा...क्या कर लेगा तेरा कुमारपाल मेरा?' । इतने में ही दूर रहे हुए राजपुरुष आये और उस व्यापारी को पकड़कर ले गये | साथ में मरी हुई जूं को भी। उसे पाटन लाया गया। राजा के सामने खड़ा कर दिया गया। राजपुरुषों ने कहा :
'महाराजा, इस व्यापारी ने जानबूझकर जूं को मारा है...' यों कहकर मरी हुई को डिब्बी में से निकालकर राजा को दिखाया।
राजा ने व्यापारी से पूछा : 'तू नहीं जानता है क्या मैंने सर्वत्र जीव हिंसा को प्रतिबिंधित किया है?' 'जानता हूँ...' 'तो फिर जानबूझकर जूं को क्यों मारा?' 'व्यापारी हाथ जोड़कर बोला :
'महाराजा, वह मेरे सिर में मेरा खून पी रही थी...इसलिए मैंने उसे मार डाला!'
'अरे दुष्ट व्यापारी, उसने तेरा कितना खून पी लिया? सेर दो सेर खून पी लिया क्या तेरा? और जरा सा खून पीने की सजा के लिए तूने उसे मार डाला? अरे मूर्ख...खून तो जूं की खुराक है। और तूने उसे मार डाला तो मुझे भी क्यों तुझे नहीं मार डालना चाहिए?'
व्यापारी गिड़गिड़ाने लगा... 'दया कीजिए मेरे पर... अब से ऐसा नहीं करूँगा।' राजा बोला : 'तेरे से वह जें कमजोर थी... इसलिए तूने उसे मार डाला न? तू मुझसे कमजोर है तो मैं तुझे मार डालूँ न? निर्दय....तुझे उस छोटे से जंतु पर दया नहीं आई? वास्तव में तो तुझे मौत की सजा ही होनी चाहिए... परन्तु एक जूं की खातिर तुझे मारना भी ठीक नहीं...
तुझे मौत की सजा तो नहीं करता हूँ... पर तेरी धन-संपत्ति में से एक सुन्दर मंदिर बंधवाया जाएगा। उसका नाम रहेगा... 'यूका-विहार' (यूका यानी जॅ) इस मंदिर को देखकर अन्य लोग भी जीव-जंतु को मारने से दूर रहेंगे।'
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