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आकाशमार्ग से भरुच में
१०१ जिसका मन हमेंशा धर्मध्यान में लीन बना रहता है, उस महात्मा के चरणों में देवलोक के देव भी अपना मस्तक झुकाते है।
वैसा ही हुआ। आम्रभट्ट और उसकी पत्नी के धर्मध्यान के प्रभाव से बलात् खिंचकर देवी नर्मदा को वहाँ आना पड़ा। वह प्रगट हुई और बोली : __'दण्डनायक, यदि तुम इस मंदिर का नवनिर्माण करना चाहते हो और तुम्हारे मजदूरों को जिन्दा देखना चाहते हो, तो मुझे बत्तीस लक्षणयुक्त स्त्रीपुरुष के जोड़े का बलिदान देना होगा।'
आम्रभट्ट और उसकी पत्नी ने ध्यान पूर्ण किया। आँखें खोलीं । आम्रभट्ट ने अपनी पत्नी से कहा : 'प्रिये, देवी बलिदान चाहती है... एक दंपती का उसे बलिदान चाहिए।' पत्नी ने पूछा : 'नाथ, बलिदान देने से सभी मजदूर बच जाएंगे क्या?' 'हाँ, देवी ने वचन दिया है। उसे बलिदान मिलेगा तो वह सभी मजदूरों को जिन्दा बाहर आने देगी और मंदिर का नवनिर्माण होने देगी।'
'फिर आप क्या सोच रहे हैं?' पत्नी ने पूछा। 'यदि तुम तैयार हो तो हम अपना ही बलिदान दें।'
'स्वामिन, मैं भी यही चाहती हूँ। जिनमंदिर के नवनिर्माण हेतु एवं अनेकों की जिन्दगी को बचाने के लिए यदि हमारा जीवन सार्थक होता हो तो इससे बढ़कर खूबसूरत मौत और कौन सी होगी?' । __ पत्नी का सत्त्व और शहीद हो जाने की तमन्ना देखकर आम्रभट्ट का रोयाँरोयाँ पुलक उठा। आँखों में हर्षाश्रु का दरिया उमड़ आया। ___ पति-पत्नी दोनों खडडे में कूद गिरने के लिए तैयार हुए... वहाँ पर खड़े राजपुरुषों ने उन्हें रोका... _ 'हम आपको इस तरह मरने नहीं देंगे। आपकी जगह पर किसी और के बलिदान की हम व्यवस्था कर लेंगे... पर आप।'
'नहीं... यह कभी नहीं होगा। बलिदान हमें ही देना है। खडडे में गिरे हुए मजदूरों को बचाने का जिम्मा मेरा है... हमारी जगह पर और किसी का बलिदान कैसे दिया जा सकता है?'
पति-पत्नी ने श्री नवकारमंत्र का स्मरण किया और एक साथ खड्डे में कूद पड़े।
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