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सोमनाथ महादेव प्रगट हुए
स्तुति सुनकर राजा का मन प्रसन्न हो उठा ।
यात्रा के लिए उचित सभी क्रियाएँ पूजारियों ने संपन्न करवाई। राजा गुरुदेव के साथ महादेव के गर्भगृह तक आया। गर्भगृह के द्वार के पास खड़े रहकर उसने गुरुदेव से कहा :
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'गुरुदेव, महादेव के समान कोई देव नहीं है ... आपके जैसे महर्षि अन्य नहीं है और मेरे जैसा तत्त्व का अर्थी कोई दूसरा नहीं है । आज इस तीर्थ में त्रिवेणी संगम हुआ है ! गुरुदेव, आज मुझे एक बात का निर्णय करना है कि ‘ऐसा कौन सा धर्म है और ऐसे कौन से देव हैं... जो मुझे मोक्ष दिला सकते हैं! आप ही मुझे बताइये । उस देव का एकाग्र मन से ध्यान करके मुझे मेरी आत्मा को पवित्र बनाना है । आप जैसे गुरुदेव हो, फिर भी यदि तत्त्व का संदेह रहे यह, कुछ वैसा ही होगा जैसे कि सूरज की रोशनी में भी कोई चीज दिखाई ना दे!'
राजा की बात सुनकर गुरुदेव ने दो क्षण आँखें बंद की। कोई संकेत उन्हें मिला। आँखें खोलकर उन्होंने राजा के सामने देखा ।
'राजन्, चलो...गर्भगृह के भीतर ! मैं तुम्हें इन्ही देव के प्रत्यक्ष दर्शन करवा देता हूँ। ये महादेव स्वयं जो कहें... उस देव और धर्म की उपासना तुम करना! चूँकि देववाणी कभी असत्य नहीं होती!'
'क्या यह बात शक्य है ?'
'हाँ... तुम खुद ही अनुभव कर लेना ना!'
अब मैं ध्यान करता हूँ। तुम इस धूपदाने में धूप डालते रहना। जब तक शंकर स्वयं प्रगट होकर तुम्हें मना न करे तब तक सुगन्धित धूप डालते रहना।' गर्भगृह बंद कर दिया गया ।
आचार्यदेव ध्यान में लीन हो गये ।
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राजा धूपदाने में धूप डालने लगा ।
पूरा गर्भगृह धुएँ के बादलों से भर गया । अंधेरा छा गया । दिये भी बुझ गये। इतने में आहिस्ता-आहिस्ता शंकर के लिंग में से प्रकाश की किरणें फूटने लगीं। प्रकाश बढ़ता चला... और उस रोशनी में से एक दिव्य आकृति प्रगट हुई ।
राजा खुले नयन से उस दिव्य आकृति को देखने लगा।