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गुरुदेव की निस्पृहता
'राजन, तुमने ऐसी कौनसी भारी गलती कर ली कि तुम्हें क्षमा माँगनी पड़े? तुम्हारा कोई दोष नहीं है...। रास्ते में हम तुम से मिले नहीं इसका मतलब यह मत करना कि 'हम तुम्हारे ऊपर गुस्सा हैं!' दरअसल हमें तुम्हारे समागम की आवश्यकता ही नहीं थी। चूंकि - हम पैदल चलते हैं। - नीरस भोजन करते हैं... वह भी दिन में एक बार! - जीर्ण कपड़े पहनते हैं! - रात में भूमिशयन करते हैं! - सदा निःसंग रहते हैं और - हृदय में एक मात्र परम ज्योति का ध्यान करते हैं! अब फिर... इसमें हमें राजा की आवश्यकता कहाँ महसूस होगी ?'
राजा सिद्धराज आचार्यदेव की वाणी सुनता ही रहा! उसे समझ में आ गया कि आचार्यदेव तो नि:संग एवं विरक्त हैं। उन्हें मेरी जरूरत होगी भी क्यों? पर जरूरत तो मुझे उनकी है! मुझे श्रेष्ठ गुरुदेव मिल गये हैं!'
राजा ने आचार्यदेव से क्षमायाचना की। आचार्यदेव ने आशीर्वाद दिये।
राजा अपने पड़ाव पर लौटा। अब तो नियमित आचार्यदेव से मिलने के लिए आता है! उनके चरणों में बैठकर जैन धर्म का तत्त्वज्ञान प्राप्त करता है। ___यों कुछ ही दिनों की यात्रा के पश्चात् उनका कारवाँ पालीताना पहुँच गया। शत्रुजय गिरिराज के दर्शन करके सिद्धराज का दिल विभोर हो उठा।
सभी का मन-मयूर नृत्य करने लगा।
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