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१८
देवी प्रसन्न होती है ! अपनी निर्धन स्थिति का विचार किया... न ही अपने सुख वैभव के बारे में सोचा!
आचार्यदेव ने कहा : 'ठीक है... तुम्हारी यही इच्छा है तो तुम श्रमण भगवान महावीर स्वामी का देवविमान सा भव्य मंदिर बनवाओ!'
धनद सेठ ने आचार्य भगवंत की आज्ञा शिरोधार्य की | तुरन्त ही मंदिर के निर्माण की तैयारियाँ प्रारम्भ की। उन्होंने आचार्यदेव से विनती की... 'गुरुदेव, इस नवनिर्मित होने वाले जिनप्रासाद में भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा आपश्री के करकमलों द्वारा होनी चाहिए... तब तक आप शिष्य परिवार के साथ यहीं पर बिराजमान रहिए।' ___ एक ओर मंदिर का निर्माण होने लगा... दूसरी ओर धनद सेठ का खोया हुआ... रुका हुआ व्यापार चलने लगा... वेग से बढ़ने लगा!
जब मंदिर बनकर तैयार हो गया। तब तक तो धनद सेठ ने व्यापार में लाखों रुपये कमा लिए थे। उन्होंने प्रतिष्ठा का भव्य उत्सव रचाया। आचार्य भगवंत ने श्रेष्ठ मुहूर्त में भगवान महावीर स्वामी की भव्य प्रतिमा की प्रतिष्ठा की | जयनादों से धरती-गगन गूंज उठे । नागपुर की अवनी पावनी होकर नाच उठी।
प्रतिष्ठा उत्सव संपन्न होने के पश्चात् आचार्यदेव ने नागपुर से विहार किया। विहार यात्रा करते हुए वे शिष्य परिवार के साथ पाटन पधारे! वही पाटन जो कि गुजरात की राजधानी के रुप में उन्नति के शिखर पर आसीन था। गुर्जरेश्वर सम्राट सिद्धराज के शासन में गुजरात समृद्ध था!
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