Book Title: Kaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me Author(s): Sanjiv Godha Publisher: A B D Jain Vidvat Parishad Trust View full book textPage 8
________________ काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में समान भिन्न-भिन्न स्थित हैं, ऐसे कालाणु असंख्य द्रव्य हैं। (5) प्रत्येक द्रव्य अपने स्वभाव में सदा ही वर्तते हैं, उनका यह वर्तना किसी बाह्य सहकारी कारण के बिना नहीं हो सकता, अतः इनको वर्तानेवाला सहकारी कारणरूप वर्तना लक्षण जिसमें पाया जाता है, उसे काल कहते हैं। काल के आधार से ही समस्त द्रव्य वर्तते हैं। (6) काल द्रव्य अनादिनिधन है, वर्तना उसका लक्षण माना गया है। यह अत्यन्त सूक्ष्म, परमाणु बराबर है तथा असंख्यात होने के कारण सम्पूर्ण लोकाकाश में भरा हुआ है। इसमें अनन्त पदार्थों के परिणमन कराने की सामर्थ्य है, अतः स्वयं असंख्यात होकर भी अनन्त पदार्थों के परिणमन में सहकारी होता है। जिसप्रकार छह द्रव्यों में धर्मास्तिकाय जीव-पुद्गलों के गमन में तथा अधर्मास्तिकाय उनकी स्थिति में निमित्त होता है, आकाश द्रव्य सब द्रव्यों को अवगाहना देने का कार्य करता है, उसीप्रकार काल द्रव्य सभी द्रव्यों के वर्तना/परिणमन में निमित्त होता है। लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं। प्रत्येक प्रदेश पर एक-एक कालाणु स्थित होने से काल द्रव्य भी असंख्यात हैं। प्रत्येक कालाणु एक दूसरे से भिन्न हैं, स्वतंत्र हैं और एक प्रदेशी हैं। काल द्रव्य एक प्रदेशी होने से अस्तिकाय में शामिल नहीं है। 6. द्रव्यसंग्रह, गाथा-22 7. गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा-568 8. आदिपुराण, भाग-1, 3/2-3 9. 'गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकारः। - तत्त्वार्थसूत्र, 5/17 10. 'आकाशस्यावगाहः । - वही, 5/18Page Navigation
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