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काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में
अवसर्पिणी के प्रथम तीन काल (भोगभूमि)
भरत एवं ऐरावत क्षेत्रों में अवसर्पिणी के प्रथम तीन कालों में भोग भूमि रहती है। इन कालों में भोगों की प्रधानता होती है, इसीलिये जहाँ ये काल वर्तते हैं, उन्हें भोगभूमि कहते हैं। यहाँ सभी बाह्य सामग्री विविध प्रकार के कल्पवृक्षों से प्राप्त होती है। यहाँ सभी युगलिया जन्म लेते हैं, और वे जीवन पर्यंत पति-पत्नी के समान रहते हैं। इन मनुष्यों की आयु के नौ मास शेष रहने पर ही स्त्री के गर्भ धारण होता है, शेष काल में किसी के भी गर्भ नहीं रहता, फिर नौ मास पूर्ण होने पर युगल (नर-नारी) भूशय्या पर सोकर गर्भ से युगल (पुत्र-पुत्री) के निकलने पर तत्काल ही मरण को. प्राप्त हो जाते हैं।" अंतिम समय में पुरुष को छींक और स्त्री को जँभाई आने से मृत्यु होती है ।" अथवा आदिपुराण” एवं तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक" के अनुसार आयु के अन्त में पुरुष को जम्हाई और स्त्री को छींक आने से मृत्यु होती है।
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भोगभूमि में नर-नारि दोनों के शरीर शरद ऋतु के मेघों समान स्वयं ही आमूल विलीन हो जाते हैं।" अथवा तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक" के अनुसार उनके शरीर विद्युत के समान विघट जाते हैं। यहाँ उत्पन्न हुये जीवों का कदलीघात मरण अथवा 70. युगलिया = बालक-बालिका युगल रूप में
71. तिलोयपण्णत्ती, 4 / 379-380
72. वही, 4/381
73. आदिपुराण, 3/42
74. तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक, भाग-5, 3 / 31 / पृ. 351 / पं.4 75. तिलोयपण्णत्ती, 4/381
76. तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक, भाग-5, 3 / 31 / पृ. 351 / पं.5