Book Title: Kaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Author(s): Sanjiv Godha
Publisher: A B D Jain Vidvat Parishad Trust

View full book text
Previous | Next

Page 39
________________ R काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में में गंगा और सिन्धु नदियों के बीच आर्यखण्ड में 14 कुलकरों की उत्पत्ति हुई। 12 ये प्रजा के जीवन जीने के उपाय का मनन करने अर्थात् जानने से मनु तथा आर्य पुरुषों के कुलों की रचना करने से कुलकर कहलाते हैं, इन्होंने अनेक वंश (कुल) स्थापित किये थे, अतः कुलों को धारण करने से कुलधर हैं तथा युग के आदि में होने से ये युगादिपुरुष भी कहे जाते हैं। 13 आचार्य यतिवृषभा14 कहते हैं - ये सब कुलों के धारण करने से कुलधर नाम से और कुलों के करने में कुशल होने से कुलकर नाम से भी लोक में प्रसिद्ध हैं। वे इनकी मनुसंज्ञा की सार्थकता बताते हुये कहते हैं - ये अपने अवधिज्ञान एवं जातिस्मरण ज्ञान से भोगभूमिज मनुष्यों को जीवन के उपाय बताते हैं, इसलिये मुनिन्द्रों द्वारा मनु कहे जाते हैं ।15 स्थानांग सूत्र की वृत्ति में आचार्य अभयदेव ने लिखा है कि कुल की व्यवस्था का संचालन करने वाला प्रकृष्ट प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति कुलकर कहलाता था। चौदह कुलकरों के नाम त्रिलोकसार' एवं आदिपुराण18 के अनुसार इसप्रकार हैं – प्रतिश्रुति, सन्मति, क्षेमंकर, क्षेमन्धर, सीमंकर, सीमन्धर, विमलवाहन, चक्षुष्मान्, यशस्वी, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित्, नाभिराय।। 112. हरिवंशपुराण, 7/122-124 113. (1) आदिपुराण, 3/211-212, (2) लोकविभाग, 5/120-121 114. तिलोयपण्णत्ती, 4/516 115. वही, 4/515 116. स्थानांगवृत्ति, 767/518/1 (जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिसूत्र, प्रस्तावना, पृष्ठ-28 से साभार) 117. त्रिलोकसार, गाथा-792-793 118. आदिपुराण, 3/229 से 232

Loading...

Page Navigation
1 ... 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74