Book Title: Kaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Author(s): Sanjiv Godha
Publisher: A B D Jain Vidvat Parishad Trust

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Page 60
________________ काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में बाहुबल, क्षमा, धैर्य आदि की वृद्धि होते हुये 21 हजार वर्ष का दुषमादुषमा काल और उसके बाद जब आगामी दुषमा काल के भी 20 हजार वर्ष व्यतीत होते हैं, तबतक मनुष्यों का आहारादि उसी प्रकार चलता रहता है। उत्सर्पिणी काल में कुलकर - जब दुषमा-सुषमा काल प्रारंभ होने में 1000 वर्ष शेष रहते हैं, तब इन भरत/ऐरावत क्षेत्रों की पृथ्वी पर पुनः 14 कुलकर उत्पन्न होते हैं ।171 आचार्य नेमिचन्द्र'72 चौदह के स्थान पर सोलह कुलकरों का उल्लेख करते हैं, वहाँ पद्म तथा महापद्म ये दो नाम अधिक हैं। ये सभी कुलकर जगत के प्राणियों को अग्नि को उत्पन्न करना, भोजन पकाकर खाना, विवाह करना, बन्धु परिवार आदि के साथ शिष्टाचार पूर्वक रहना आदि बातों को शिक्षक की भाँति समझाते हैं। उत्सर्पिणी काल में भी 24 तीर्थंकर होते हैं। अंतिम कुलकर के पुत्र प्रथम तीर्थंकर होते हैं।173 तीर्थकर हमेशा दुषमा सुषमा काल में ही होते हैं, यह अवसर्पिणी की अपेक्षा चौथा काल एवं उत्सर्पिणी की अपेक्षा तीसरा काल कहलाता है। ____उत्सर्पिणी में होने वाले 24 तीर्थंकरों के नाम एवं उनके किस भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंधन हो चुका है अथवा किस भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंधन होगा - इसका भी नामोल्लेख सहित 171. 'वास सहस्से सेसे उप्पत्ती कुलकराण भरहम्मि' – तिलोयपण्णत्ती, 4/1590 172. त्रिलोकसार, गाथा-871 173. 'पढम जिणो, अंतिल्ल कुलकर सुदो..' - तिलोयपण्णत्ती, 4/1599

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