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काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में भाई ! ऐसा नहीं है। चतुर्थ काल के भी सभी जीव धर्मात्मा नहीं होते तथा पंचम काल के सभी अधर्मात्मा नहीं होते।
दूसरी बात हमारा जन्म चतुर्थ काल में भी अनंत बार हो चुका है। काल परावर्तन की दृष्टि से देखें तो चतुर्थ काल का कोई भी समय ऐसा नहीं है, जब हमारा जन्म न हुआ हो। चतुर्थ काल में जन्म लेकर भी जब तक यह जीव अपने निज ज्ञायक आत्मा को न जाने तब तक सुखी नहीं हो सकता तथा पंचम काल में भी अपने स्वरूप को जानकर पहिचानकर आत्मानुभव रूप सच्चे सुख की प्राप्ति की जा सकती है। इस काल में भी धर्मध्यान का सद्भाव आगम में बताया गया है।
ऋषभदेव ने तृतीय काल में निर्वाण प्राप्त किया तो इन्द्रभूति गौतम, सुधर्मस्वामी, जम्बूस्वामी, श्रीधर केवली आदि अनेक जीवों को पंचम काल में भी निर्वाण प्राप्त हो गया, यह बात अलग है कि इन्द्रभूति आदि का जन्म चतुर्थ काल में हुआ था। ____ वस्तुतः कोई भी बाहरी काल इस जीव को सुखी-दुखी करने में समर्थ नहीं है। जिस काल में यह जीव अपने स्वभाव के सन्मुख हो वही काल श्रेष्ठ है। बाहरी काल से सुख-दुःख मानना मिथ्यात्व है, काल परावर्तन का कारण है।
सच्चा सुख तो अपने में ही है; अतः बाहरी काल से दृष्टि हटाकर अपने में दृष्टि केन्द्रित करने का प्रयास करें, इसी में सार है, यही सुखी होने का उपाय है, यही मुक्ति का मार्ग है। हम सभी निज ज्ञायक की शरण लेकर परम सुख की प्राप्ति करें - इसी भावना से विराम लेता हूँ।